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शिशुपालवध में सन्धियोजना कार्यावस्थाएं
महाकाव्य-लक्षण में माचार्यों ने निर्देश किया है कि धर्म, अर्थ, काम मोक्ष इस चतुर्वर्ग में से एक महाकाव्य का फल होता है। इनमें से एक की प्राप्ति और कभी कभी किन्हीं दो की प्राप्ति नायक की अभीष्ट हो सकती है। जब साधक (नायक) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इनमें से किसी एक अथवा किन्हीं दो की प्राप्ति की चेष्टा करता है, उस समय उसके समस्त क्रिया-कलापों में एक निश्चित कम रहा करता है । पहले साधक किसी फल की प्राप्ति के लिए दृढ़ निश्चय करता है, जब उसे फलप्राप्ति सुगमतापूर्वक होती हुई दृष्टिगत नहीं होती, तब वह बड़ी ही तीव्रता के साथ कार्य में ला जाता है,, मार्ग में विघ्न भो उपस्थित होते हैं, उनके प्रतिकार के लिए वह प्रयत्न करता है, उस समय साध्य-सिद्धि दोनों ओर की खींचातानी में पड़कर संदिग्ध हो जाती है। धीरे धीरे विघ्नों का नाश होने लगता है और फलप्राप्ति निश्चित हो जाती है एवं अन्त में समस्त फल प्राप्त हो जाता है । यही कार्य की अवस्था का क्रम हुमा करता है जिसे पांच भागों में विभक्त किया गया है । उन भागों के नाम इस प्रकार हैं-भारम्भ, यत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम । इन पांचों अवस्थाओ का सम्यक् नियोजन महाकाव्य में आवश्यक माना गया है । शिशु० महाकाव्य में ये पांचों अवस्थाएं इस प्रकार हैं
आरम्भ
'मुख्य फल की प्राप्ति के लिए जहाँ केवल औत्सुक्य ही होता है, उसे 'भारम्भ' कहते हैं। शिशुपाल का वध ही यहाँ साध्य है । कवि माघ ने इस साध्य की सिद्धि के लिए साधक में मौत्सुक्य प्रथम सर्ग के अन्तिम श्लोक में अभिव्यक्त किया है, जहाँ श्रीकृष्ण नारद से इन्द्र का संदेश सुनकर 'ओम्' कहकर शिशुपाल के वध के लिए अपनी स्वीकृति प्रदान करते हैं । स्वीकृति देने तथा नारद के आकाश मार्ग से लौट जाने के अनन्तर १. साहित्यदर्पण-चत्वारस्तस्य वर्गा स्युस्तेष्वेकं च फल भवेत् ६।३१८ २. दशरूपक-अवस्था पाच कार्यस्य प्रारब्धस्य फलार्थिमिः ।
आरम्भयत्नप्राप्त्याशामियताप्तिफलागमा १११९ ३. दशम्मक-भौत्सुक्यमात्रमारम्भ फललाभाय भूयसे १।२१