________________
शिशुपालषध में सन्धियोजना उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि महाकाव्यों की संधियोजना को नोटकों की सन्धियोजना के बराबर ही महत्त्व दिया गया है। अनेक संस्कृत महाकाव्य भी इसके प्रमाण हैं क्योंकि उनमें सन्धियों की विधिवत् योजना हुई है। संधियों के सम्यक् निर्वाह के लिए यह आवश्यक है कि नाटक अथवा काव्य में आधिकारिक तथा प्रासङ्गिक वृत्त, पञ्च अर्थप्रकृतियों तथा पञ्च कार्यावस्थाओं की भी सम्यक् योजना की जाये। अर्थप्रकृतियाँ
कथावस्तु के निर्वाह में जिन तत्त्वों से सहायता मिलती है उन्हें अर्थप्रकृति कहते हैं। ये संख्या में पांच है।' बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी तथा कार्य-इन पांचों अर्थप्रकृतियों की योजना शिशु० में हुई है। बीज
जिसका पहले अत्यल्प कथन किया जाये किन्तु आगे चलकर जो अनेक रूप से विस्तार पाये उसे बीज कहते हैं। शिशु० के प्रथम सर्ग में देवर्षि नारद द्वारा श्रीकृष्ण के समक्ष इन्द्र-संदेश प्रस्तुत करते हुए अंत में शिशुपाल के वध के लिए प्रार्थना किये जाने में 'बीज' अर्थप्रकृति है। विन्दु
अवान्तर कथा के विच्छिन्न होने पर भी प्रधान कथा के अविच्छेद का जो निमित्त हो उसे 'बिन्दु' कहते हैं। जिस प्रकार तैल -बिन्दु जल में फैल जाता है, उसी प्रकार काव्य-बिन्दु भी अग्रिम कथाभाग में फैलता चला जाता है। शिशु. में श्रीकृष्ण के समक्ष शिशुपाल का वधरूप कार्य मुख्य कथा है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ का निमंत्रण अवान्तर कथा है। दो कार्यों के एक साथ उपस्थित होने से श्रीकृष्ण बलराम तथा उद्धव के साथ मंत्रणा करते हैं। बलराम का मत है कि पहले शिशुपाल के प्रति ममियान करना चाहिये जबकि उद्धव का मत इससे विपरीत है। इस प्रकार निर्णय न हो सकने से यहाँ अवान्तर कथा विच्छिन्न होती हुई-सी परिलक्षित होती है किन्तु थोड़ी ही देर में निर्णय हो जाने से पुनः मुख्य कथा अविच्छिन्न रूप से आगे बढ़ चलती है । १. दशरूपक१ दशरूपक- स्वल्पोद्दिष्टस्तु तसेतुर्षीज विस्तार्यनेकधा ।१।१० ३. शिशु०-१५४३ ४. दशस्या अन्नान्तरार्थविच्छेदै बिन्दुरच्छेदकारणम् १।१७