________________
२१
श्रीजिनप्रभसूरिविरचित अपभ्रंश-संधिद्वय चरिउ विवरिउ जोवस्स इह दीसए, जेण सुह तन्न दुहु जेण तं गवेसा । नाण-निहि निय-गिहे मुत्त बहि भमडए, तत्थ जिउ जाइ दुहु जत्थ सिरि निवडा १०॥ जेसु ठाणेसु जिउ णंतसुहु पावए, मुत्त तं ठाणु अप्पं दहें दावार । जेण सम्मेण कम्मारि लहु लूटए, मुत्त तं मूढु हा विसय-विमु मुटए ॥११॥ कह वि मणुआइ-सामग्गिय पत्तओ, तह वि विसयामिसे गाढ अणुरतओ। लक्ख-चुलसीइ जोणीइ पुण भामिओ, मोहराएण रे जीव अस्सामिओ ॥१२॥ पुग्गलाणं परावत्तयाऽणतया, हिंडिया जीव न हु कह वि उवसंतया । देव-गुरु-धम्मु न कयाइ उवलद्ध ओ, तेण एओ जीवु कम्मे हि संरु दओ ॥१३॥ सुक्खु पच्चक्षु दुक्खं पि मेरूवमं, अहह अद्दिटु पुण मन्नए तिणसमं । विरस संसार-दुच्चिट्ठियं हिद्वियं, बपुरि जीवाण भव-भमणु हा निद्वियं ।।१४॥ कह वि पई पत्त सामग्गियं मग्गिय, हेव रे जोव तं कुणसु सुहमग्गियं । चारगागार-संसार-सुहमुज्झिउँ, जुत्त ते सुहय पियमप्पियं उज्झिउं ॥१५॥ सयल-लच्छीह लद्धाइ किं आगयं, अह सकम्मेहि दुत्थेण कि ते गयं । राग-दोसे य ते दोवि जिय मिल्हिउं, जुत्त संतोस-निवपासि तुह मल्हि उं ॥१६॥ जत्थ सुपसत्थ निग्गंथ-मत्थय-मणी, जयइ जंबू-गणो भुवण-चिंतामणो । एवमन्ने वि सिरि-थूलभद्दाइणा, एय सिरि-बयरमुणि-सामि सुयनाणिणो॥१७॥
इय विविह-पयारिहिं, विहि-अणुसारिहिं, भाविहिं जिणपहुमणुसरहु । सुत्तेण य पवरिहिं, आणा-सुतरिहिं, भवियण भव-सायरु तरहु ॥१८॥
॥ जीवाणुसद्वि-संधि समत्ता ।।