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नगीन जी. वाह
(७) वाक्या? वेद वाक्यरूप है । वेद वाक्यों पर से यह सिद्ध होता है कि बेद का कोई कर्ता होना ही चाहिए। महाभारतगत वाक्यों का कर्ता जिस प्रकार व्यास है उसी प्रकार वेद वाक्यों का कर्ता भी होना चाहिए और वह ईश्वर ही है ।
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(८) सर्व्याविशेधात् ? – सृष्टि के आरंभ में दो अणुओं का संयोग हो कर क बनता है । यह यक का परिमाण अणुपरिमाणजन्य नहीं क्योंकि यदि उसके परिमाण को अणुपरिमाणजन्य माना जायगा तो उसका ( द्व्यणुक का ) परिमाण अणुतर बनने का प्रसंग आयगा । वह महत्परिमाणजन्य भी नहीं क्योंकि अणुओं में महतपरिमाण नहीं होता । तथा द्वद्यणुक के परिमाण को महत्परिमाण न्याय-वैशेषिक नहीं मानते । द्वणुक का परिमाण मी अणुपरिमाण ही है, किन्तु अणु के अणुपरिमाण और यक के अणुपरिमाण के वीच थोडा भेद है, द्वयणुक का अणुपरिमाण थोडा अल्प अणुपरिमाण है । अर्थात् अणु के परिमाण की अपेक्षा ह्रयणुक का परिमाण थोडा स्थूल है। ऐसी अवस्था में द्वणुक का परिमाण किससे उत्पन्न होता है यह प्रश्न उठता है । इस उलझन को सुलझाने के लिए न्याय-वैशेपिक ने यह सिद्धान्त माना है कि संख्या से भी परिमाण उत्पन्न हो सकता है । द्रयणुक का परिमाण दो परमाणुओं में रही हुई द्वित्व संख्या से उत्पन्न होता है; किन्तु न्याय-वैशेपिक के मत में द्वित्य, आदि संख्या की उत्पत्ति के लिए अपेक्षाबुद्धि आवश्यक है। अपेक्षा बुद्धि यह तो चेतन का धर्म है, और जीवों ने तो अभीतक शरीर, इन्द्रियाँ आदि प्राप्त ही नहीं कीं। अतः जीवों की अपेक्षाबुद्धि इस द्वित्व संख्या की उत्पत्ति में
भूत नहीं हो सकती। इसलिए जिस चेतन की अपेक्षाबुद्धि सृष्टि के प्रारंभ में दो परमाणुओं में द्वित्व संख्या उत्पन्न करती है वही ईश्वर है " " ।
जीव का प्रयत्न जिस को साक्षात् प्रेरित करता है वह उसका शरीर है । उसी तरह ईश्वर जिसको साक्षात प्रेरित करता है वह उसका शरीर माना जायगा " 1 ईश्वरप्रयत्न परमाणुओं को साक्षात् प्रेरित करता है, अतः इस अर्थ में परमाणुओं को ईश्वर का शरीर माना जा सकता है । उदयनाचार्य इसी अर्थ में' परमाणुओं को ईश्वर का शरीर मानता है" । तथा उदयनाचार्य ने आद्यकलाप्रवर्तक के रूप में ईश्वर को सिद्ध करते समय जिसके द्वारा कलाकौशल बताया जाता है-सिखाया जाता है ऐसा शरीर भी ईश्वर धारण करता है ऐसा कहा है। इतना होने पर भी ईश्वर अशरीरी है इस न्याय-वैशेपिकों की परम्परा के स्थापित मत का वह विरोध नहीं करता। वे ईश्वर में आनन्द गुण को मानते हुए नजर आते हैं । उन्होंने ईश्वर को dard भी माना है । इन दो बातों में वे जयन्त का अनुसरण करते हैं । वे बुद्धि, rea और प्रयत्न इन तीनों को ईश्वर में मानते हैं ।
उदयनाचार्य एक महत्त्व के प्रश्न की चर्चा करते हैं । वह यह है—शरीर के बिना बुद्धि नहीं और शरीर के दूर होने से बुद्धि दूर हो जाती है यह बात अनित्य बुद्धि के लिए है । किन्तु नित्य बुद्धि के लिए शरीर की कोई उपयोगिता नहीं । अतः नित्य बुवा ईश्वर अशरीरी है, ऐसा न्याय-वैशेषिकों का कथन है। इसी तर्क को बढा