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ईश्वर
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उसका कर्ता भी वह कोई तीसरे की सहायता से बनेगा तो वही कि वही आपति आ के खड़ी होगी और इससे कभी मुक्ति होगी ही नहीं । यदि कहो कि यह किसी की भी सहायता के विना ही अपनी स्वेच्छा से जगन के कार्यो को करता हैजगत के कार्यों को निरपेक्ष रूप से अपनी इच्छा से ही उत्पन्न करता है तो पुरुष के कर्म निष्फल वन जायेंगे, उसकी साधना व्यर्थ हो जायगी और मोक्ष पुरुषार्थ नहीं रहेगा, अथवा उसकी इच्छा का अनुसरण कर मुक्तों को भी वापस संसार में प्रवेश करना पडेगा ।
इन शंकाओं का समाधान करते हुए उद्योतकर कहते हैं कि ईश्वर का निरपेक्ष कर्तृत्व तो न्याय-वैशेषिक स्वीकृत ही नहीं करते । अतः धर्माधर्म के वैफल्य का दोष नहीं आता । जिसकी सहायता से वह जगत के कायों का कर्ता बनता है उसका भी वह कर्ता बन सकता है, क्यों कि वह जगत के सभी कार्यों को चुगपद् (एक साथ ) नहीं करता किन्तु क्रम से करता है । उदाहरणार्थ, मनुष्य अमुक करण (सावन) से बसूला बनाता है, उसके बाद वसूले से दंड बनाना है उसके बाद बनाता है, इत्यादि । उसी प्रकार ईश्वर जीव के धर्माधर्म की सहायता में जीव के शरीर, सुख, दुःख इत्यादि का कर्ता है। जीव के आनननः संयोग और अशुद्ध अभिसन्धि की सहायता से जीव के अधर्म का कर्ता है: जीव के आसमनःसंयोग और शुद्ध अभिसन्धि की सहायता से जीव के धर्म का कर्ता है: जीव के सुख, दुःख और स्मृतिकी तथा उनके साधनों की सहायता से जीव की शुद्ध या अशुद्ध अभिसन्धि का कर्ता है। जब वह अमुक कार्यो को करना है तब वह जिसकी सहायता से उसे करता है उसका वह अकर्ता रहता है ऐसा करने वाले को उद्योतकर पूछता है कि इससे क्या आप ऐसा कहना चाहते हैं कि जब वह जगत में दिखनेवाला कोई कार्य करता है तब वह जिसकी सहायता से कार्य करता है उसका वह अकर्ता रहता है ? उद्योतकर शंका को स्पष्ट कर अब उत्तर देता है कि यह शंका निर्मूल है क्योंकि वह जगत के सभी कार्यों को युगपद नहीं बनाना किन्तु क्रम से बनाता है और क्रम से उसे जगन के सभी कार्यों का कर्ता मान सकते हैं, अतः निर्दिष्ट दोष नहीं आता । विरोधी पूछते हैं कि सब से पहलेअर्थात् प्रथम सर्ग की आदि में जब पहली बार ईश्वर ने जीवों के लिए आदि बनाये होंगे तब तो जीवों के पूर्वकृत कर्म (= धर्माधर्म) के होने की शकयता नहीं, तो फिर उस समय उसने किसकी सहायता से शरीर आदि बनाये होंगे? इस प्रश्न के उत्तर में उद्योतकर कहते हैं कि संसार अनादि है अतः प्रथम सर्ग की यात करना निरर्थक है । प्रलयान्तरित सर्गे की परम्परा का आदि नहीं " " |
ईश्वर को जगत बनाने का क्या प्रयोजन है ? जगत में लोग जो कार्य करने हैं वह किसी न किसी उद्देश से ही करते हैं- अमुक यस्तु को प्राप्त करने के लिए करते हैं या अमुक वस्तु को दूर करने के लिए करते हैं। ईश्वर को दूर करने जैसा कुछ भी नहीं है क्योंकि उसमें दुःख नहीं और दुःख को ही दूर करना होता है। उसे प्राप्त करने का कुछ नहीं क्योंकि वह वशी है, तृष्णारहित है, पूर्णकाम है ।