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________________ न्यायवैशेषिक दर्शन में ईश्वर नगीन जी. शाह (१) कणाद और ईश्वर ' कणाद के वैशेषिक सूत्रों में ईश्वरका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। मीह मे दीपिकाकार मानते हैं कि कणाद के मत में ईश्वर नहीं हैं ।' और गा जैसे आधुनिक विद्वान भी ऐसा ही मत प्रदर्शित करते हैं । किन्तु उत्तरकालीन न्यायवैशेषिक संप्रदाय में ईश्वरने जो महत्त्व का स्थान प्राप्त किया है उसे में रखने हुए टीकाकारों ने एवं कतिपय विद्वानों ने वैशेषिक सूत्रों में ईश्वर का संकेत योजने का प्रयत्न किया है । तोऽभ्युयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्म अन्नदन्य प्रामाण्यम् ' वै. सू १.१. २-३- इन दो सूत्रों का सीधा अर्थ है ' जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त होता है वह धर्म है । उसका (-धर्म का) निरूपण करनेवाला होने से वेद प्रमाण है । किन्तु टीकाकार और कतिपय विद्वान् 'तद्वचनात ' का 'ईश्वरवचनात् ' ( ईश्वर का वचन होने से ) ऐसा अर्थ करते हैं । यह कथन उचित नहीं लगता । • संज्ञाकर्म त्वस्मदविशिष्टानां लिंगम् ' ( वे. सू. २.१.१८ ) इस सूत्र में आया हुआ (अस्मदविशिष्टानाम् ' का अर्थ टीकाकार और कई विद्वान् 'महेश्वरस्य ' ऐसा करते हैं । इस तरह से वैशेषिक सूत्रो में ईश्वर को खोज निकालने का कार्य कठिन है । है ही नहीं तो कैसे प्राप्त हो सकता है ? उत्तरकालीन न्यायवैशेषिकों का ईश्वरविषयक यह महत्त्व का सिद्धान्त है कि परमाणुओं का आद्य कर्म (= गति ) ईश्वरकारिन है । किन्तु कणाद तो कहते हैं कि परमाणुओं का आद्य कर्म अष्टकारित है । तथा उत्तरकालीन न्याय-वैशेपिकों का ईश्वरविपयक दूसरा महत्त्व का सिद्धांत यह है कि वेद ईश्वरकृत है । कणाद इतना ही कहते हैं कि वेद के वाक्य बुद्धिमान के द्वारा लिये हुए होने चाहिए । इसका सीधा अर्थ यह निकलता हैं कि वेद के रचयिता माभात्कृतधर्मा ऋषि थे । मेरे इस निबन्ध को पं. दलसुखभाई मालवणिया जी ने ध्यान से पढ़कर मुझे पकृत किया है, अतः मैं उनके प्रति मेरा कृतज्ञभाव प्रगट करता हूँ । मेरे इन विचारों को हिन्दी भाषा में रखने में मेरे भित्र पस्पे मुझे सहायता मिली है, मतः मैं उनका आभारी हूँ
SR No.520752
Book TitleSambodhi 1973 Vol 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1973
Total Pages417
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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