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________________ किरातार्जुनीय में बिमर्शसन्ध्यङ्गनिरूपण दिका हो जाती हैं। यहाँ अर्जुन के वचन में किरातपति की अवमानना स्पर होने से छलन नामक अग है । इसी प्रकार चतुर्दश सर्ग के २१ वें और २२३ श्लोकों में भी यह अग प्राप्त होता है। व्यवसाय-ना० शा० और सा० द० के अनुसार प्रतिक्षा मोर हेतु में संभूत अर्थ को व्यवसाय कहते हैं । दशरूपक के अनुसार जहाँ कोई पात्र आपके सामर्थ्य के विषय में कहे वहाँ व्यवसाय अंग होता है। चतुर्दश सर्ग के २० श्लोक में यह भग प्राप्त होता है जहाँ अर्जुन शिव-दूत से कहते हैं-'सम, घर, कवच अथवा सर्वोत्तम धनुष इनमें से कोई एक वस्तु तुम्हारे स्वामी सुमसे क्यों नहीं मांग लेते अथवा यदि उनके पास पुरुषार्थ हो तो फिर सचना से क्या प्रयोजन । बल प्रयोग से ही ले लें क्योंकि शक्तिशालियों की पस्तु का समय अपहरण करने में कोई दोष नहीं । यहाँ अर्जुन ने प्रकारान्तरमा शक्ति (सामर्थ्य) को प्रकट किया है । अतः यहाँ दशरूपक की परिभाषा सार व्यवसाय नामक विमर्शाङ्ग है। विरोधन-ना० शा० के अनुसार जहाँ क्रुद्ध पात्र का उखरोखर साल से वहाँ विरोधन होता है । दशरूपक के अनुसार जहाँ क्रुद्ध पात्रों के द्वारा वशति का प्रकटीकरण हो वहाँ विरोधन अग होता है। साहित्यदर्पणकार ने इस संबी पूर्णरूपेण भिन्न परिभाषा दी है। उनके अनुसार कार्य के मस्यय कि उपगमन विरोधन कहलाता है । यह भग किरात में प्राप्त नहीं होगा। किरात. - अभूतमासज्य विस्खमीहित बहादसभ्य व पिवे । विजामतोऽपि दमयस्य रोवता भवत्यपाये परिमोहितो कति २ ना० ० -- व्यवसायन विज्ञेय प्रतिज्ञाहेनुसंभव. १९११ सा०६०- व्यवसायश्च विलेय प्रविज्ञाहेतूसंभव ॥१.१ ३ दशकपक -- व्यवसाय स्वाक्युक्ति 110 • किरातः -- भसिः शरा वर्म पनुस मोचविवि विनिवरेते। भयास्ति शक्ति तमेव माम्बयामा इपिङ पक्तिमतो . ५ मा० था. -- विरोधन तु संरम्भाइत्ततरमा RRY ६ दशल्पक – रन्धानां विरोधनम् । . सा. ६०-- कार्यात्ययोपगमन विरोधममिति सम् 114
SR No.520751
Book TitleSambodhi 1972 Vol 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1972
Total Pages416
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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