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संस्कृति का अभिषेक
उपवन में आने दो, आत्म-सुरभि गन्ध । तोड़ो तम-घेरों से, पिछला अनुबन्ध ।। सिर पर से गुजर गये, कितने तूफान । मिटी नहीं हस्ती पर, होम दिये प्राण ।।
देखते सदैव रहे, एक में अनेक ।
करें श्रमण संस्कृति का, अभिनव अभिषेक ।। टूट गये, बिखर गये, पर न झुका भाल । जलती दिन-रात रही, ज्ञान की मशाल ।। अनगिनती फूल झरे, पर न मरी गन्ध । वाणी की वीणा पर, मखर उठे छन्द ।।
बनी रही आत्मशक्ति, जीवन की टेक।
करें श्रमण संस्कृति का, अभिनय अभिषेक ।। कण-कण में ऋषियों की, गूंजी अभिव्यक्ति । प्राणों में समा गयी, राम-बाण शक्ति ।। समता, श्रम, संयम ही, जीवन-शृंगार । जड़ भी जी उठता पा, मानव का प्यार ।।
धूमिल न होता है; सत्य, शिव, विवेक ।
करें श्रमण संस्कृति का, अभिनव अभिषेक ।। देता है दिशा-बोध, सत्य का प्रकाश । जीवन का संबल है, श्रद्धा-विश्वास ।। मानव का धर्म बड़ा, सेवा निष्काम। मन की निर्मलता ही, आत्म दिव्य धाम ।।
फूल हैं अनेक पर, उपवन है एक । करें श्रमण शक्ति का, अभिनव अभिषेक ।।
0 बाबूलाल 'जलज'
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