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आप में एक घटना है । कहना होगा कि यदि हिन्दी कथा-सृजन का स्वभाव अति नाटकीयता से आकर्षित होने का नहीं होता तो महावीर में उसे प्रचुर सामग्री मिलती।
वास्तव में महावीर का चरित आधुनिक नाट्य रचना के लिए एक चुनौती है। 'जयवर्धमान में एक सीमा तक इस चुनौती को स्वीकार किया गया है। घटनाहीनता के बाबजूद महावीर, घटना-बहुल है। उनका जीवन एक मुक्तिकामी, स्पष्ट दष्टा व्यक्ति का अकेला आत्मसंधई है। वे भीतर तो जूझ ही रहे हैं, वाहर भी पिता सिद्धार्थ, माँ त्रिशला, भाई नन्दिवर्धन, पत्नी यशोदा से जूझ रहे हैं, लेकिन इस लड़ाई में उनकी मुद्रा पारम्परिक ढंग से लड़ने की नहीं है। वे सहमति , समर्थन और समझ का उपयोग करते हुए नाटक में सदेह-सजीव अनेकान्तवाद/स्थाद्वाद प्रतीत होते हैं। उनकी लड़ाई एक शान्त लड़ाई है । 'जयवर्धमान' में यह बाहरी लड़ाई एक प्रमुख मुद्दा है और नाटक के तीसरे अंक को छोड़कर शेष चारों अंकों में व्याप्त है। तीसरे अंक में भी वह लड़ाई है पर उसका अहसास दो कारणों से नहीं होता । एक तो उसमें दीगर चर्चाएँ अधिक हैं
और दूसरे उसमें महावीर के अपनी माँ त्रिशला की इच्छा को शिरोधार्य करने और इस तरह पराजित होने की स्थिति है। पहले अंक में विजय और सुमित्र; चौथे अंक में यशोदा; पाँचवें अंक में नन्दिवर्धन, सुप्रिया, रंभा, तिलोत्तमा, शूलपाणि महावीर आदि के विरुद्ध विवाद और संघर्ष निर्मित करते हैं। दूसरा अंक पहले अंक का ही विस्तार है, इसीलिए मैंने कहा है कि आलोच्य नाटक में बाहरी लड़ाई एक प्रमुख मुद्दा है। महावीर इसे अपने ढंग से लड़ते हैं। इस सन्दर्भ में वे जिन संवादों का उपयोग करते हैं उनकी रचना डॉ. रामकुमार वर्मा ने प्राचीन जैन साहित्य और जैन दर्शन के अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य के आधार पर की है। फिर भी साफ और सुलझे हुए संवाद हैं ये। पाण्डित्य के बोझ से रहित, शोध और विद्वत्ता की भाषा से हटकर । रामकुमारजी ने जनभाषा के प्रथम प्रयोक्ता महावीर के साथ उनके संवादों में भरपूर न्याय किया है । भाषा का वह छायावादी तेवर जो उनके कुछ अन्य नाटकों में है यहाँ अधिकांशतः अनुपस्थित है। छोटे वाक्य, छोटे संवाद, प्रायः तदभव शब्द, शान्त और संयमित अनत्तजक भाषा। 'जयवर्धमान' के महावीर बोलकर चौंकाते नहीं, सहज और मुक्त करते हैं। उनके बोलने से तनाव खत्म होता है । ज्ञान उनका सहज स्वभाव है। 'जयवर्धमान' में वक्ता, वक्तव्य और वक्तव्य की वाहक भाषा एक ही रेखा में है; इसीलिए महावीर के साथ सभी पात्रों की सहज सहमति हो जाती है। वे सिर्फ माँ को नहीं समझा पाते। लेकिन माँ कुछ समझना ही नहीं चाहतीं। वे संज्ञाशन्य हो जाती हैं और स्वभावतः महावीर को उनकी बात मानकर विवाह के लिए स्वीकृति देनी पड़ती है ।
इस प्रकार घटनाओं और विभिन्न पात्रों के घातप्रतिघात से महावीर का चरित्र उभरता है । यह स्पष्ट होता है (जैसा कि नाटककार ने अपनी ओर से' में स्वीकार किया है) कि महावीर का चरित्र अपने अखण्ड व्रत में स्थिर (स्टेटिक') है । नाटककार ने कथायोजना में मनोविज्ञान की भंगिमाओं को भी उभरने का अवसर दिया है;
तीर्थंकर : अप्रैल ७९/४:
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