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आज कौन तीर्थंकर, आया चुपचाप ?
धरती ने करवट ली, सुनकर पद-चाप । आज कौन तीर्थंकर, आया चुपचाप ? चहक उठा पंछी-दल, महक उठा बाग। उड़ता है गली-गली, प्रेम का पराग ।।
निर्झर-सा आत्मसत्य, भरता आलाप।
आज कौन तीर्थकर, आया चुपचाप ? ग्रन्थों से बँधा नहीं, जो है निर्ग्रन्थ । जीवन से जोड़ रहा, समता का पन्थ ।। भीषण कोलाहल में, खड़ा हुआ शान्त । उपवन में खिले हुए, पुष्प अनेकान्त ।।
शूलों में फूलों-सा, सहता सन्ताप ।
आज कौन तीर्थंकर, आया चुपचाप ? कर्मों की गाँठों को, सहज रहा खोल। बोल रहा भीतर से, प्रेम-सने बोल ।। लुटा रहा करुणा का, अक्षय भण्डार । आत्मज्ञान-गंगा की, बहा रहा धार ।।
दया, क्षमा, संयम का; करता नित जाप।
आज कौन तीर्थंकर, आया चुपचाप ? जीवन तप ज्वाला में, तपता दिन-रात । पूछता न पीकर जल, कभी जाति-पाँत ।। मानव-मन-मन्दिर के, खोल रहा द्वार। टूटी उर-वीणा के, जोड़ रहा तार ।।
सत्य-सिन्ध-गहराई, रोज रहा नाप।
आज कौन तीर्थंकर, आया चुपचाप ? व्यर्थ है चारित्र बिना, जीवन का मोल। पढ़ता है आत्म ग्रन्थ, भीतर पट खोल ।। घूम रहा द्वार-द्वार, बनकर निर्नाम । वारता है काम सभी, हँसकर निष्काम ।।
ओढ़ रहा अपने सिर, युग का अभिशाप । आज कौन तीर्थंकर, आया चुपचाप ?
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0 बाबूलाल 'जलज'
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