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बोधकथा
मरा है कोई और
नगर के चौराहे पर अचानक भीड़ एकत्र हो गयी। मोटर गाड़ी से एक युवक कुचलकर मर गया था। इसे जो सुनता दौड़कर पहुँचता और युवक को वहाँ पड़ा देखकर दुखी होता। एक व्यक्ति भी उत्सुकतावश वहाँ आया, युवक को देखकर वह अन्य सभी की भाँति रुका नहीं, उल्टे पैर तेजी से वापस हो गया।
चौराहे से दूर एक विशाल भवन के मुख्य द्वार पर वह रुका । सीढ़ियों पर वह चढ़ा और दरवाजे पर दस्तक दी। थोड़ी-सी देर में दरवाजा खुला। मकान-मालिक को देखकर वह दंग रह गया। बिना कुछ कहे वह वापस हो लिया। इस पर मकान-मालिक ने बिना कुछ-कहे सुने वापस होते उस युवक से पूछा : 'मित्र, सुनिये, यों ही कैसे लौट लिये? कुछ तो कहिये क्या मामला है ?' आगन्तुक ने ठहरते हुए कहा : 'चौराहे पर मोटर-एक्सीडेन्ट हुआ है और उससे एक व्यक्ति का काम तमाम हो गया है। उसे देख कर मुझे भ्रम हुआ था। मुझे लगा कि जो मरा है वह तुम हो, अस्तु घर पर खबर करने दौड़ा चला आया था । तुम्हें यहाँ जीवित देख मुझे अपने पर भारी हैरानी हुई है।' आगे आगन्तुक की बात सुनकर मकान-मालिक अवाक रह गया। उसने कहा : 'ठहरो, यह और बताते जाओ कि जो मरा है वह पहिने क्या है ?' उत्तर मिला : 'जो मरा है वह कुरता पहिने है । और क्या पहिने हैं': मकान-मालिक ने आगे पूछा। उत्तर देते हुए आगन्तुक ने कहाः ,धोती पहिने है'। कुरता और धोती तो मकान-मालिक भी पहिने हुए था। यह सुनकर वह अधीर हो उठा। दोनों हाथ सिर पर रखकर वह दीवार के सहारे बैठ गया। कुछ देर बाद जब वह अपने में हुआ तो उसने फिर पूछा : ‘क्या यह और बताओ कि उसके कुरते का रंग कैसा है ?' आगन्तुक ने कहा: 'जो मरा है उसके कुरते का रंग नीला है'। यह सुनकर मकान-मालिक उठा और मुसकुराते हुए बोला : 'तो निश्चय ही कोई दूसरा व्यक्ति मरा है, क्योंकि मेरे कुरते का रंग पीला है ।
___इस घटना से स्पष्ट है कि जिनका जीवन बाहरी बोध पर निर्भर करता है और जिन्हें आत्मबोध नहीं है ; उनका जीवित होना भी वस्तुतः एक उपहास है।
--डा. महेन्द्र सागर प्रचण्डिया
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