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(बाबू बाबूजी की याद में : पृष्ठ ७२ का शेषांश) विद्वान्, पं. रूपचन्दजी गार्गीय आदि जैसे धर्मोपकारी मनुष्य पानीपत में मौजूद हैं। इन्हीं सबके साहस और सतर्कता से उस रोज़ पानीपत के सुधारकों का पानी देखने को मिला। पहले तो ब्रह्मचारीजी को केवल धर्मोपदेश के लिए ही निमंत्रित किया गया था, अब विरोधी पक्ष के इस रवैये से चिढ़कर वहाँ के कुछ लोगों ने, जो विधवा-विवाह के पक्षपाती थे, दूसरे रोज़ एक सार्वजनिक सभा का बहुत बड़ा आयोजन किया। कान में भनक पड़ी कि कुछ लोग ब्रह्मचारीजी की नाक काटने को फिर रहे हैं। सुना तो मैं और पं. वृजवासीलालजी भौंचक रह गये। हे भगवन् ! जब उन्हीं की नाक चली जाएगी, तब हमारी नाक की कीमत भी क्या रहेगी? पानीपत में आकर बुरे फंसे। पानीपत बादशाही लड़ाइयों का क्षेत्र रहा है, यह तो इतिहास में पढ़ा था, पर हम भी कभी जा फँसेंगे, यह कभी ख्याल में भी न आया था। सभा-स्थान जैन-अजैन जनता से खचाखच भरा था, विरोधी भी डटे खड़े थे। जहाँ तक ख्याल है उस सभा के अध्यक्ष बा. जयभगवानजी बनाये गये थे। प्रारम्भ में ही खड़े होकर उन्होंने जो मौलिक, सारगर्भित, प्रामाणिक, नपा-तुला भाषण दिया तो मैं स्तब्ध-सा रह गया ! पानीपत चार-पाँच बार व्याख्यान देने गया था, परन्तु बा. जयभगवानजी का व्याख्यान नहीं सुना था। यह तो जानता था कि वे एक सुलझे हुए और दार्शनिक व्यक्ति हैं, परन्तु इतना गहरा अध्ययन है और ऐसा मर्मस्पर्शी भाषण दे देते हैं, यह नहीं मालूम था। इनके बाद ब्रह्मचारीजी का भाषण हुआ, उनके भाषण सैकड़ों बार सुने थे, परन्तु उस रोज़-जैसा भाषण फिर सुनने को नहीं मिला। सभा शान्त थी। और यह मालूम होता था कि किसी जादूगर ने मोहनी डाल दी है।
सन् १९४० में वे रुग्ण होकर रोहतक से दिल्ली आये। दो-चार रोज़ रहकर लखनऊ जब जाने लगे तो कार में बैठते हुए बोले-“गोयलीय! हमारा ज़माना समाप्त हुआ, अब तुम लोगों का युग है। कुछ कर सको तो कर लो, समाज-सेवा जितनी अधिक बन सके कर लो, मनुष्य-जन्म बार-बार नहीं मिलने का" कहते हुए गला रुंध गया। मैं टप-टप रोने लगा, पाँव तो छू सका पर मुँह से न बोला गया। उस समय यह आभास भी न हुआ कि समाज के प्रति इतनी मोह-ममता रखने वाला व्यक्ति लखनऊ जाकर यूं निर्मोही हो जाएगा और जिस लखनऊ ने उसे दिया था, वही हमसे बिना पूछे-ताछे अपने उदर-गह्वर में रख लेगा।
ब्रह्मचारीजी की मृत्यु पर पत्रों ने आँसू बहाये, शोक-सभाएँ भी हुई। शीतल होस्टल, शीतल-वीर-सेवा-मंदिर, और शीतल-ग्रंथमाला की योजनाएँ भी कुछ दिनों बड़ी सरगर्मी से चलीं, पर आखिर सब सीतल-स्मारक-शीतल होकर रह गये। (भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा १९५२ ई. में प्रकाशित 'जैन जागरण के अग्रदूत' से साभार ।)
तीर्थंकर : नव. दिस. ७८
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