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________________ वात्सल्य का निर्वाह लोगों को आश्चर्य में डाल देता है; किन्तु जो सघन वत्सलता और करुणा मुनिश्री के आचरण में दिखायी देती है वह उनके भीतरी अँबे में पक रही निर्ममता की ही परिणति है । ममत्व का शून्य पर पहुँचना ही उसका अधिक प्रगाढ़ और विस्तृत होना है। मुनिश्री की ममता एक नये आयाम पर आकर विश्व-वात्सल्य में आकृत हुई हैं। अपार करुणा के कारण ही अब उनका अपना जीवन उनका अपना कहाँ है, वह तो संपूर्ण विश्व में व्याप्त जीवन-जैसा कुछ हो गया है । हिमालय पर चढ़कर जिसने संपूर्ण भारत और विश्व के भाग्य-विधान को देखा हो, उसके विश्वव्यापी होने की स्थिति को हम किसी कोशिश पर नकार नहीं सकते । जैनाचार्यों और मुनियों की परम्परा में मुनिश्री विद्यानन्द की ओर जब हम देखते हैं तो ऐसा लगता है मानो इस महामुनि की जीवन-यात्रा में सारे आचार्य, उपाध्याय और मुनि समवेत प्रतिच्छायित हुए हैं । मुनिश्री यदि मात्र जैनों के ही हों तो हम उनकी चर्चा करना भी पसन्द न करें; किन्तु वे अपने जीवन-चिन्तन में जैन होने से पूर्व अत्यन्त मानवीय हैं और इसीलिए भिन्न भी हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जब कोई मुनि तो है, किन्तु मानवीय नहीं है। ऐसे में मुनित्व की पराजय है। जब मुक्ति के लिए मानवत्व अवश्यम्भावी है तो मुनित्व के लिए तो वह है ही। विद्यानन्दत्व की महत्ता इसमें है कि वह अपनी चर्या और विचार-यात्रा में केवल जैन नहीं है, संपूर्ण भारतीयता के समवेत पुंज है । १९७० ई. में मुनिश्री ने हिमालय की जो पद-यात्रा की और सांस्कृतिक समन्वय की जिस गंगोत्री को उन्मुक्त किया, वह अविस्मरणीय है। उसने वर्तमान युवापीढ़ी को मानव के चान्द्र तलआरोहण से भी अधिक प्रभावित किया है। विस्मयकारी यह है कि मुनिश्री कभी यह देख ही नहीं पाते कि उनकी सन्निधि में जो बैठा है वह जैन है, हरिजन है, खेतिहर है, श्रमिक है, प्राध्यापक है, या कुलपति है । उनकी दृष्टि इतनी पारगामी है कि वह हर आदमी में बैठे आदमी को देख लेती है और वहीं पहुँचकर उसे प्रभावित करती है । वह तलाशते ही यह हैं कि जो पास बैठा है वह क्या चाहता है, उसकी मानवीय ऊर्जा कितनी है और उसे मानवता के कल्याण में कितना मोड़ा जा सकता है, इसीलिए उनकी दृष्टि में भेद-विज्ञान तो निवास करता है, भेद नहीं ठहरता ; जैनधर्म में भी भेदविज्ञान का महत्त्व है, भेद महत्त्वहीन है। मुनि विद्यानन्द परम जैन श्रमण हैं, हर तरह से फकीर यानी निर्ग्रन्थ । उनकी वैश्विक दृष्टि मुसलमान, हिन्दू, सिक्ख, ईसाई, और पारसी में कोई फर्क नहीं कर पाती । उनकी विचार-यात्रा संप्रदायातीत है, संकीर्णताओं को अतिक्रान्त करती, अत्यन्त पावन । उनकी विचार-यात्रा की प्रमुख विशेषता यह है कि वे विकास की महत्ता को स्वीकार करते हैं। उन्हें जड़ता और प्रमाद अस्वीकार है । वे किसी एक स्थिति को, जिसका विकास संभव है, मंजूर नहीं कर पाते; इसीलिए विकास को वे धर्म मानते हैं और हर अस्तित्व को पुरश्चरण की प्रेरणा देते रहते हैं। वे अनुक्षण ऊर्ध्वग हैं अतः जीवन की उदात्त ऊर्ध्वगामी शक्तियों में उनकी गहन आस्था है। समय के एक-एक क्षण और समय (आत्मा) के एक-एक ऊर्जाकण का वे उसकी संपूर्णता में उपयोग करना चाहते हैं, यही कारण है कि उन्हें वे लोग बिलकुल नापसन्द हैं जो समय के मूल्य को नहीं समझते और जिन्हें समय की शक्तियों की पहिचान नहीं है । वे समय की सही पकड़ को विकास की आत्मा मानते हैं तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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