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यात्रा : विद्या के, आनन्द की
आज वह जो बोलते हैं, सीधा हृदय में उतरता है, और उनकी शैली का निजी माधुर्य मोहित करता है । उनकी साधना और उनके ज्ञान की गहराई ने अभिव्यक्ति का माध्यम पा लिया है, अर्थात् उन्हें जन-जन ने पा लिया है।
0 श्रीमती रमारानी
मुनिश्री विद्यानन्दजी से मेरा पहला साक्षात्कार उस समय हुआ जब आचार्य श्री देशभूषणजी के सान्निध्य में वे धार्मिक साधना की उस मंजिल पर पहुँच गये थे जहाँ से उस पथ पर आगे ही बढ़ा जाता है; पीछे लौटना या स्थिर खड़े रहना संभव नहीं होता। मेरे पति (साहूजी) उन्हें बहुत पहले से जानते थे। एक विशेष प्रकार की सहज आत्मीयता दोनों के बीच स्थापित है, यह मैं दोनों के वार्तालापों से जान चुकी थी। साहूजी को मैंने उस समय के व्रती-ब्रह्मचारी विद्यानन्दजी से यह कहते सुना कि "आप मुनिव्रत धारण न करें । सामाजिक चेतना को जगाने और सामाजिक उन्नति के कार्यों को दिशा देने का महत्त्वपूर्ण काम मुनिपद की कठोर मर्यादा के कारण सीमित हो जाएगा।" यह बात उनके द्वारा शायद, पहले भी कही गयी होगी; क्योंकि दूसरी ओर से जो उत्तर आया उसमें आकुलता की गहराई थी : “साहूजी, आप मुझ से जब-जब यह कहते हैं, मैं एक असमंजस में पड़ जाता हूँ, क्योंकि आप की भावना को मैं समझता हूँ, और उसका आदर भी करना चाहता हूँ, लेकिन अन्दर की प्रेरणा अब इतनी बलवती है कि वह तो होना ही है । आप ऐसी सलाह देकर क्यों कर्म बाँधते हैं ?" साहूजी फिर कुछ न बोले । मुझे उस संयमी व्यक्ति की यह सब बात अच्छी लगी । यद्यपि मेरे मन ने भी साहुजी की बात का समर्थन किया था ।
जहाँ तक सामाजिक चेतना को जागृत करने की बात का सम्बन्ध था-मुझे लगा कि जैन समाज के साधु-व्रती 'सामाजिक चेतना' को जागृत करने का जो अर्थ समझते हैं, उसकी सीमा सामान्य रूप से बहुत तंग होती है । साहूजी की अपेक्षाएँ उससे आगे जाती हैं । मुझे यह भी लगा कि श्री विद्यानन्दजी की दीक्षा की भावना तो वास्तव में तीव्र है, किन्तु सामाजिक चेतना को जागृत करने के लिए जिस प्रकार की वाक्शक्ति, शैली में प्रभाव और भाषा में प्रवाह होना चाहिये वह कमतर है; लगता है जैसे सोचते किसी
और भाषा में हैं, कहते हैं किसी दूसरी भाषा में जिसका मुहावरा उनकी पकड़ में नहीं है । इसलिए तपस्या और संयम का मार्ग पकड़कर पूरी लगन के साथ आत्म
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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