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जिस युक्त पुरुष का अपने लेखन में नाना प्रकार से भावन-अनुभावन, आलेखन करता रहा है, उसे देखा। जैन-जगत् में अपने जाने ऐसा कोई मनि तो पहले देखा नहीं था। यहाँ एक परम्परागत सन्यासी में से आधुनिकता-बोध को प्रसारित (रेडिएट) होते देखा।
अपनी कुल-रक्तजात आहती परम्परा में ही, वीतराग और अनुराग की ऐसी सुमधुर संयुति उपलब्ध कर सकूँगा, ऐसी तो कल्पना भी नहीं की थी। श्रीमहावीर कवि के मनभावन होकर सामने आ गये । भूतल पर जन्म-धारण सार्थक अनुभव हुआ। ___ 'महाराज, अहोभाग्य, इस अकिंचन कवि को आपने पहचाना । अपने ही धर्म-रक्त में साहित्य का ऐसा मर्मज्ञ और कहाँ पा सकूँगा। • आपका आदेश शिरोधार्य है। · · पर अनुमति दें, इस बार पहले महाकाव्य ही रचूँ । यह मेरा चिर दिन का स्वप्न है । उपन्यास का विस्तार समय चाहेगा, और वैसी सुविधा।'
मैं अटक गया । तपाक से मुनिश्री ने पूर्ति की :
'. . · समय तुम्हारा होगा, स्वाधीन । और साधन-सुविधा की चिन्ता तुम्हारी नहीं, हमारी होगी।'
अन्तर्यामी के सामने था। मेरे कथन से अधिक मेरे हर मनोभाव को यह जानता है। सृजन की समाधि में खो जाने की छुट्टी यह मुझे दे सकता है । · · · अपनी शर्तों पर नहीं, कवि के अपने स्वभाव की शर्तों पर । जैन संसार में ही नहीं, पूरे भारत में मेरे साथ तो ऐसा पहली बार हुआ। 'वातरशना' का चिरकाम्य विजन तो साकार देखा ही, पर वह विश्वंभर भी स्वयं ही मुझे खोजता मेरे सामने आ खड़ा हुआ, जिसकी खोज में इन दिनों मैं भटक रहा था । · · · याद हो आया आधी रात का वह लग्न-क्षण, जब तूफानी मेल की खिड़की पर हठात् बिजली-सा चमक उठा था : 'श्री महावीरजी।' चाँदनपुर के बाबा को लेकर, जो हजारों नर-नारी के चमत्कारिक अनुभवों की कथाएँ बालपन से सुनता रहा हूँ, उसके सत्य की साक्षी पा गया । सुमति दीदी की भावमूर्ति आँखों में छलछला आयी । उनके प्रति मेरी कृतज्ञता का अन्त नहीं था।
'महाराज, उपन्यास आज के अराजक साहित्य-परिदृश्य में, अवहेलित हो जाए तो कोई ताज्जुब नहीं; किन्तु महाकाव्य विशिष्ट और विरल होने से, आज के साहित्य में भी मूल्यांकित हुए बिना न रह सकेगा।'
'साहित्यकार नहीं, लोक-हृदय होगा तुम्हारे साहित्य का मानदण्ड और निर्णायक । जान लो मुझसे, इस देश के लक्ष-लक्ष नर-नारी के हृदय में वस जाएगा तुम्हारा यह उपन्यास । इस मुहूर्त में मुझे भगवान् के लोकरंजनकारी, सर्वहृदयहारी स्वरूप का रचनाकार चाहिये । और वह तुम 'मुक्तिदूत' में सिद्ध हो चुके । वर्तमान में लोक-मानस पर उपन्यास ही छा सकता है, काव्य नहीं । पहले उपन्यास लिखकर दो, फिर महाकाव्य भी लिखवाऊँगा । वह मुझ पर छोड़ दो . . . . !"
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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