________________
विद्वान् थे । आर्यरक्षित की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर पिता के द्वारा हुई फिर वे आगे अध्ययनार्थ पाटलिपुत्र चले गये । पाटलिपुत्र से अध्ययन समाप्त कर उनका जब दशपुरआगमन हुआ तो स्वागत के समय माता रुद्रसोमा ने कहा : "आर्यरक्षित, तेरे विद्याध्ययन मुझे तब सन्तोष एवं प्रसन्नता होती जब तू जैन दर्शन और उसके साथ ही विशेषतः दृष्टिवाद का समग्र अध्ययन कर लेता । "
माँ की मनोभावना एवं उसके आदेशानुसार आर्यरक्षित इक्षुवाटिका गये जहाँ आचार्य श्री तोसलीपुत्र विराजमान थे । उनसे दीक्षा ग्रहण कर जैन दर्शन एवं दृष्टिवाद का अध्ययन किया । फिर उज्जैन में अपने गुरु की आज्ञा से आचार्य भद्रगुप्तसूरि एवं तदनंतर आर्यवज्रस्वामी के समीप पहुँच कर उनके अन्तेवासी बनकर विद्याध्ययन किया
आर्यवज्रस्वामी की मृत्यु के उपरान्त आर्यरक्षित सूरि १३ वर्ष बाद तक युगप्रधान रहे। आपने आगमों को चार भागों में विभक्त किया : (१) करणचरणानुयोग, (२) गणितानुयोग, (३) धर्मकथानुयोग और (४) द्रव्यानुयोग | इसके साथ ही आचार्य आरक्षित सूरि ने अनुयोगद्वार सूत्र की भी रचना की, जो कि जैन दर्शन का प्रतिपादक महत्त्वपूर्ण आगम माना जाता है । यह आगम आचार्यप्रवर की दिव्यतम दार्शनिक दृष्टि का परिचायक है ।
आर्यरक्षित सूरि का देहावसान दशपुर में वीर निर्वाण संवत् ५८३ में हुआ ।
४. सिद्धसेन दिवाकर : पं. सुखलालजी ने श्री सिद्धसेन दिवाकर के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है: “जहाँ तक मैं जान पाया हूँ, जैन परम्परा में तर्क का और तर्क - प्रधान संस्कृत वाङमय का आदि प्रणेता है सिद्धसेन दिवाकर ।" उज्जैन के साथ इनका पर्याप्त सम्बन्ध रहा है । इसकी कृतियाँ इस प्रकार हैं : १. “ सन्मति प्रकरण” प्राकृत में है । जैन दृष्टि और मन्तव्यों को तर्क-शैली में स्पष्ट करने तथा स्थापित करने में जैन वाङमय में यह सर्वप्रथम ग्रंथ है, जिसका आश्रय उत्तरवर्ती सभी श्वेताम्बरदिगम्बर विद्वानों ने लिया है। सिद्धसेन दिवाकर ही जैन परम्परा का आद्य संस्कृत स्तुतिकार हैं । २. 'कल्याण मंदिर स्तोत्र' ४४ श्लोकों में है । यह भगवान् पार्श्वनाथ का स्तोत्र है; इसकी कविता में प्रसाद गुण कम और कृत्रिमता एवं श्लेष की अधिक भरमार है । परन्तु प्रतिभा की कमी नहीं है । ३. 'वर्धमान द्वात्रिंशिका स्तोत्र' ३२ श्लोकों में भगवान् महावीर की स्तुति है । इसमें कृत्रिमता एवं श्लेष नहीं है । प्रसादगुण अधिक है। इन दोनों स्तोत्रों में सिद्धसेन दिवाकर की काव्यकला ऊंची श्रेणी की पायी जाती है । ४. ' तत्वार्थाधिगम सूत्र की टीका" बड़े-बड़े जैनाचार्यों ने की है । इसके रचनाकार को दिगम्बर सम्प्रदाय वाले “उमास्वामिन् ” और श्वेताम्बर सम्प्रदाय वाले “उमास्वाति" बतलाते हैं, उमास्वाति के ग्रंथ की टीका सिद्धसेन दिवाकर ने बड़ी विद्वत्ता के साथ लिखी है ।
२१८
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
www.jainelibrary.org