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________________ वस्तु और चेतन की इसी स्वतन्त्र सत्ता के कारण जैनधर्म किसी ऐसे नियन्ता को अस्वीकार करता है, जो व्यक्ति के सुख-दुःख का विधाता हो । उसकी दृष्टि में जड़चेतन के स्वाभाविक नियम (गुण) सर्वोपरि हैं। वे स्वयं अपना भविष्य निर्मित करेंगे। पुरुषार्थी बनेंगे । युवाशक्ति की स्वतन्त्रता के लिए छटपटाहट इसी सत्य का प्रतिफलन है । इसीलिए आज के विश्व में नियम स्वीकृत होते जा रहे हैं, नियन्ता तिरोहित होता जा रहा है । यही शुद्ध वैज्ञानिकता है। वस्तु एवं चेतन के स्वभाव को स्वतन्त्र स्वीकारने के कारण जैनधर्म ने चेतन सत्ताओं के क्रम-भेद को स्वीकार नहीं किया। शद्ध चैतन्यगण समान होने से उसकी दृष्टि में सभी व्यक्ति समान हैं। ऊँच-नीच, जाति, धर्म आदि के आधार पर व्यक्तियों का विभाजन महावीर को स्वीकार नहीं था; इसीलिए उन्होंने वर्गविहीन समाज की बात कही थी। प्रतिष्ठानों को अस्वीकृत कर वे स्वयं जन-सामान्य में आकर मिल गये थे। यद्यपि उनकी इस बात को जैनधर्म को मानने वाले लोग अधिक दिनों तक नहीं निभा पाये । भारतीय समाज के ढाँचे से प्रभावित हो जैनधर्म वर्ग-विशेष का होकर रह गया था, किन्तु आधुनिक युग के बदलते सन्दर्भ जैनधर्म को क्रमश: आत्मसात् करते जा रहे हैं ; वह दायरों से मुक्त हो रहा है । जैनधर्म अब उनका नहीं रहेगा जो परम्परा से उसे ढो रहे हैं; वह उनका होगा जो वर्तमान में उसे जी रहे हैं। ____ वर्तमान युग में दो बातों का और जोर है-नारी-स्वातन्त्र्य और व्यक्तिवाद की प्रतिष्ठा । नारी-स्वातन्व्य के जितने प्रयत्न इस युग में हुए हैं संभवतः उससे कहीं अधिक पुरजोर शब्दों में नारी-स्वातन्त्र्य की बात महावीर ने अपने युग में कही थी। धर्म के क्षेत्र में नारी को आचार्य-पद की प्रतिष्ठा देने वाले वे पहले चिन्तक थे । जिस प्रकार पुरुष का चैतन्य अपने भविष्य का निर्माण करने की शक्ति रखता है, उसी प्रकार नारी की आत्मा भी । अतः आज समान अधिकारों के लिए संघर्ष करती हुई नारी अपनी चेतनता की स्वतन्त्रता को प्रमाणित कर रही है। __ जैनधर्म में व्यक्ति का महत्त्व प्रारम्भ से ही स्वीकृत है । व्यक्ति जब तक अपना विकास नहीं करेगा वह समाज को कुछ नहीं दे सकता । महावीर स्वयं सत्य की पूर्णता तक पहले पहुँचे तब उन्होंने समाज को उदबोधित किया। आज के व्यक्तिवाद में व्यक्ति भीड़ से कटकर चलना चाहता है। अपनी उपलब्धि में वह स्वयं को ही पर्याप्त मानता है। जैनधर्म की साधना, तपश्चर्या की भी यही प्रक्रिया है-व्यक्तित्व के विकास के बाद सामाजिक उत्तरदयित्वों को निबाहना । जैनधर्म में सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का विवेचन है। गहराई से देंखे तो उनमें से प्रारम्भिक चार व्यक्ति-विकास के लिए हैं और अंतिम चार अंग सामाजिक दायित्वों से जुड़े हैं । जो व्यक्ति निर्भयी (निःशंकित), पूर्णसन्तुष्ट (निःकांक्षित), देहगत वासनाओं से परे (निर्विचिकित्सक ) एवं विवेक से जागृत (अमूढ़ दष्टि) होगा वही स्वयं के गुणों का विकास (उपवृहण), कर सकेगा पथभ्रष्टों को रास्ता बता सकेगा (स्थिरीकरण)। सहमियो के प्रति सौजन्य-वात्सल्य रख सकेगा तथा जो कुछ उसने अजित किया है, जो शाश्वत और कल्याणकारी है उसका वह जगत में प्रचार कर सकेगा। इस प्रकार जैनधर्म अपने इतिहास के प्रारम्भ से ही उन तथ्यों और मूल्यों का प्रतिष्ठापक रहा है, जो प्रत्येक युग के बदलते सन्दर्भो में सार्थक हों तथा जिनकी उपयोगिता व्यक्ति और समाज दोनों के उत्थान के लिए हो । विश्व की वर्तमान समस्याओं के समाधान-हेतु जैनधर्म की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो सकती है, बशर्ते उसे सही अर्थों में समझा जाए; स्वीकारा जाए। 00 मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक १९५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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