________________
त्रिभवन में जिनदेव की व्याप्ति विचार का विषय है। त्रिभुवन का अर्थ हैत्रिभुवन में रहने वालों का घट-घट । उसमें निर्गुण या निष्कल ब्रह्म रहता है। निष्कल है पवित्र और घट-घट है अपवित्र, कलुष और मैल से भरा। कुछ लोगों का कथन है कि ब्रह्म गन्दी जगह पर नहीं रह सकता, अत: पहले उसको तप, संयम या साधना, किसी भी प्रक्रिया से शुद्ध करो, तब वह रहेगा, अन्यथा नहीं। कबीर का कथन था कि राम के बसते ही घट स्वतः पवित्र हो जाएगा। मैल अपने आप छूट जाएगा और कलुष स्वयं चुक कर रह जाएगा। उन्होंने लिखा-"ते सब तिरे राम रसवादी, कहे कबीर बड़े बकवादी।” उनकी दृष्टि में विकार की लहरों से तरंगायित इस संसार-सागर से पार होने के लिए राम रूपी नैय्या का ही सहारा है। कबीर से बहुत पहले मुनि रामसिंह ने भीतरी चित्त के मैल को दूर करने के लिए, “अभितरि चित्ति व मइलियइं बाहरि काइ तवेण। चित्ति णिरंजण को वि धरि मच्चहि जेम मलेण ।।" के द्वारा निरञ्जन को धारण करने की बात कही थी। उन्होंने यह भी लिखा कि जिसके मन में परमात्मा का निवास हो गया, वह परमगति पा लेता है। एक स्थान पर तो उन्होंने कहा कि जिसके हृदय में जिनेन्द्र मौजूद है, वहाँ मानो समस्त जगत् ही संचार करता है। इसके परे कोई नहीं जा सकता। इसी प्रकार आचार्य योगीन्दु का कथन है--"जिसके मन में निर्मल आत्मा नहीं बसती, उसका शास्त्र-पुराण और तपश्चरण से भी क्या होगा?" अर्थात् निष्कल ब्रह्म के बसने से मन शुद्ध हो जाएगा और गन्दगी स्वत: विलीन हो जाएगी। मन निरञ्जन को पाते ही मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। इसके सिवा, तन्त्र और मन्त्र उसे मोक्ष नहीं दिला सकते। महचन्द ने अपने 'पाहुड़दोहा' में लिखा है, “निष्कल परम जिन को पा लेने से जीव सब कर्मों से मुक्त हो जाता है, आवागमन से छुट जाता है और अनंत सुख प्राप्त कर लेता है।” अर्थात् कलुष स्वतः हट जाता हैरहता ही नहीं।
जैन भक्ति का एक विशेष पहलू है--दिव्य अनुराग। इसे यदि भगवत्प्रेम कहें तो अनुचित न होगा। यहाँ राग और प्रेम पर्यायवाची हैं। इसी को शाण्डिल्य ने 'परानुरक्तिः ' कहा है। परानुरक्ति गम्भीर अनुराग को कहते हैं। गम्भीर अनुराग ही प्रेम कहलाता है। चैतन्य महाप्रभु ने रति अथवा अनुराग के गाढ़े हो जाने को 'प्रेम' कहा है। 'भक्ति रसामृतसिन्धु' में लिखा है “सम्यङ मसृणित स्वान्तो ममत्त्वातिशयाङिकतः । भावः स एव सान्द्रात्मा बुधैः प्रेम निगद्यते।” इन सब से पूर्व, अर्थात् विक्रम की छठी शताब्दी में आचार्य पूज्यपाद ने “अर्हदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भाव विशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः ।” अर्थात् अर्हन्त, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन में भावविशुद्धि-युक्त अनुराग ही भक्ति है--लिखा था। विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के एक जैन आचार्य सोमदेव का कथन है, 'जिन, जिनागम और तप तथा श्रुत में पारायण आचार्य में सद्भाव विशुद्धि से सम्पन्न अनुराग भक्ति कहलाता है।
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
१८७
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org