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________________ ने लिखा है, "पूज्य भगवान् जिनेन्द्र की पूजा करते हुए, अनुराग के कारण जो लेश-मात्र पाप का उपार्जन होता है, वह बहु पुण्यराशि में उसी प्रकार दोष का कारण नहीं बनता, जिस प्रकार कि विष की एक कणिका शीत शिवाम्बु राशि को-ठण्डे कल्याणकारी जल से भरे हुए समुद्र को दूषित करने में समर्थ नहीं होती है।" अर्थात् जिनेन्द्र में अनुराग करने से लेश-मात्र ही सही, पाप तो होता है, किन्तु पुण्य इतना अधिक होता है कि वह रञ्चमात्र पाप उसको दूषित करने की सामर्थ्य नहीं रखता। आचार्य कुन्दकुन्द ने वीतरागियों में अनुराग करने वाले को सच्चा योगी कहा है । उनका यह भी कथन है आचार्य, उपाध्याय और साधु में प्रीति करने वाला सम्यग्दृष्टि हो जाता है; अर्थात् उनकी दृष्टि में वीतरागी में किया गया अनुराग, यत्किञ्चित् भी पाप का कारण नहीं है। वीतरागी परमात्मा 'पर' नहीं है, वह 'स्व आत्मा' ही है। योगीन्द्र का कथन है, “एहु जु अप्पा परमप्पा, कम्म-विसेसें जायउ जप्पा।" परमानन्द स्वभाव वाले भगवान् जिनेन्द्र को योगीन्दु ने परमात्मा कहा और वह ही स्व आत्मा है, ऐसा भी कहा। उन्होंने लिखा है, “जो जिणु केवल णाणमउ परमाणंद सहाउ । सो परमप्पउ परम-परु सो जिय अप्प सहाउ ।।” अत: जिनेन्द्र में अनुराग करना अपनी आत्मा में ही प्रेम करना है। आत्म-प्रेम का अर्थ है--आत्मसिद्धि, जिसे योग कहते हैं । जिनेन्द्र का अनुराग भी मोक्ष देता है। आचार्य पूज्यपाद ने, आठ कर्मों का नाश कर आत्मस्वभाव को साधने वाले भगवान् सिद्ध से मोक्ष की प्रार्थना की है । उन्होंने यह भी लिखा है कि भगवान् जिनेन्द्र का मुख देखने से ही मुक्ति-रूपी लक्ष्मी का मुख दिखायी पड़ता है, अन्यथा नहीं। पाँचवाँ प्रश्न भक्ति के क्षेत्र में सौदेबाजी से सम्बन्धित है। जो जीव भक्ति करेगा, भगवान् उसे कुछ देगा--इहलौकिक सब कुछ । कबीर ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया। वे एक मस्त जीव थे । लेन-देन से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था। इस प्रवृत्ति को पनपाने के लिए जिस बीज की आवश्यकता होती है, वह कबीर में था ही नहीं । वे तो बिना कुछ मांगे पूर्ण आत्म-समर्पण के पक्ष में थे। उनका पूर्ण विश्वास था कि मन को 'बिसमल' किये बिना ब्रह्म के दर्शन नहीं हो सकते । जब तक सर नहीं दोगे ब्रह्म नहीं मिलेगा । कबीर का कहना था कि ब्रह्म में मन लगा देने से, मन का मलीमस स्वतः दूर हो जाता है । ऐसा नहीं कि पहले मल दूर करो तब ब्रह्म आयेगा। सर काट कर हाथ पर रख लो, यही मुख्य है। सर मैला है कि साफ, यह देखने की आवश्यकता नहीं है। सर कटते ही समर्पण पूरा हो जाएगा, और तभी ब्रह्म भी प्राप्त हो सकेगा। इसे कहते हैं--बिला शर्त समर्पण । इसे ही अहैतुक प्रेम अथवा अहैतुकी भक्ति कहते हैं। अहैतुकता जैसी जैन भक्ति-मार्ग में बन पाती है, अन्यत्र नहीं । जैन भगवान् विश्व का नियन्ता नहीं है, वह मुक्त है, अकर्ता है । वह नितान्त वीतरागी है । वह दृष्टा १८२ . तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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