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________________ के लिए कहा गया । माता - पिता विचलित होने लगे । युवा पुत्र दीक्षा लेगा ? मगर सुरेन्द्र अपने निश्चय पर अटल थे। धीरे-धीरे दो महीने बीत गये । सुरेन्द्र का अधिकांश समय मुनिजी के साथ बीतता । कई बार वे मुनिजी के साथ उनका कमंडलु लेकर जाते तो किसी भक्त के यहाँ ही भोजन कर लेते । कभी-कभी भोजन के लिए घर पहुँचते । पुत्र-प्रेम के कारण मुनिजी की यह संगति पिता को बुरी लगती । एक दिन पिताजी ने कह दिया, घर किस लिए आते हो ? खाने के लिए ? तो किसी स्वामीजी के पीछे-पीछे घूमते रहो । पेट भरने लायक भिक्षा कोई भी डाल देगा ।" यह सुनना था, कि सुरेन्द्र उलटे पाँव लौट पड़े । माँ से नहीं रहा गया । उन्होंने जबरदस्ती भोजन कराया । उस दिन माँ के प्रेमाग्रह के कारण आधा पेट खाकर उठने वाले सुरेन्द्र आज तक एक समय भोजन का व्रत पाल रहे हैं । वह भोजन कर घर से निकले, तो हमेशा के लिए ! माता-पिता और परिजनों ने सुरेन्द्र को तरह-तरह से समझाने की कोशिश की; बंधन तोड़ दिये हों, उस पर दुनियादारी कहते कि "मैं स्वामीजी के साथ रहता हूँ, आखिर लोग चुप रहते । मगर जिसने माया, मोह और ममत्व के के तर्क का क्या असर होता ? सुरेन्द्र यही तो किसी का कुछ बुरा तो नहीं करता ।" 1 मुनिजी भी इन दिनों अपने इस शिष्य को परख रहे थे । आखिर उनके विहार का दिन आ गया। ग्रामवासियों के लिए उनका अन्तिम उपदेश हुआ । मुनिजी ने चरित्र-बल और आत्मधर्म की व्याख्या की । उपस्थित लोगों में कुतूहल था कि अब सुरेन्द्र क्या करेंगे ! मुनिजी की पदयात्रा आरम्भ हुई । शिष्य सुरेन्द्र उनके अनुगामी बने ! गुरु मौन थे, शिष्य मौन थे !! लोगों ने प्रश्न पूछे, समझाने की कोशिशें कीं, रोकने के प्रयत्न किये, लेकिन ऊगते हुए सूर्य को कौन रोक पाया है ? ( मराठी से अनूदित ) Jain Education International आस्था की दीवट पर, चिन्तन का दीप धर; रहस्य की मावस को अनुभूति की पूनम कर । For Personal & Private Use Only - सेठिया तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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