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________________ मेरा निर्णय बाह्य सम्पत्तिमान न बदल सके : किन्तु स्वयम् परम लोकरंजन भगवान् ने अपने ही एक प्रतिरूप दिगम्बर योगी के माध्यम से मेरा निर्णय अपने हाथ में ले लिया ।..... 'एवमस्तु' कह कर मैं नमित हो गया, भगवद्पाद गुरुदेव श्री विद्यानन्द स्वामी के चरणों में। और आकाशवृत्तिचारी विद्यानन्द ने अपने एक इंगित मात्र से, मानो आकाश में से ही मेरा चरितार्थ मेरे सामने प्रस्तुत कर दिया।... ..."उसी दोपहर इन्दौर से, मेरे इन्दौर-काल के स्नेही और मध्यप्रदेश के एक सुप्रतिष्ठ राज-समाज नेता श्री बाबूभाई पाटोदी, श्री महावीरजी आ पहुँचे । मुनिश्री के चरणों में बरसों बाद हमारा अद्भुत स्नेह-मिलन हुआ। मुनिश्री द्वारा ही स्थापित इन्दौर की, श्री वीर निर्वाण ग्रंथ-प्रकाशन समिति' के मंत्री हैं बाबूभाई। मुनिश्री ने कवि का चरितार्थ-भार उन्हें सहेज दिया।"""उस तीसरे पहर अपने जीवन में आकाशवृत्ति की अमोघता का एक ज्वलन्त अनुभव हुआ। काश, हम उस योगक्षेमवहाम्यहं' पर अपने को समूचा छोड़ सकें ! एक बार तो छोड़ कर देखें : वह अचूक भार उठा ही लेता है। श्री महावीरजी में मुझे श्री भगवान् की चमत्कारिक दर्शन-कृपा का अनुभव भी हुआ। सान्ध्य आरती की बेला में जब चाँदनपुर के बाबा के समक्ष, घंटा-घड़ियाल के अनवरत नाद के साथ, सौ-सौ दीपों की आरतियाँ झलमलाती हुई उठती हैं; उस क्षण प्रभु को अत्यन्त समीप, ठीक अपने सम्मुख पा कर, मेरी आँखों से अविरल आँसू बहने लगे। रक्त-मांस के जीवित मानव चेहरे से भी, पाषाण-मूर्ति में अवतरित प्रभु का वह मुख-मण्डल अधिक जीवन्त, तरल, ऊष्मा-दीपित लगा। अन्तर्तम की आत्मीयता से सारे मन-प्राण आँसुओं में उमड़ आये। भगवान् की उस विश्ववल्लभ छाती में सर ढाल देने को मैं आकुल-व्याकुल हो उठा। तीन दिन-रात निरन्तर उस तीर्थ-भूमि के कण-कण में, सारे आकाश-वातास में, भगवान की जीवन्त उपस्थिति का चमत्कारिक बोध होता रहा। और दूसरी ओर भगवद्पाद गुरुदेव विद्यानन्द में अपने उन तीर्थेश्वर प्रभु को चलते-फिरते, धर्मदेशना करते देखा। उस दिगम्बर सिंह में महावीर की नरसिंह मुद्रा का ज्वलन्त साक्षात्कार हुआ। देव-गुरुशास्त्र का समन्वित साकार दर्शन पाया। और श्री महावीर प्रभु का वही अनुग्रह आज मुझे सहसा ही कोटा की इस भूमि में ले आया । अद्भुत है उस अनन्त पुरुष का खेल। इस प्रसंग पर यह स्मरण होना स्वाभाविक है कि आज से सत्ताईस वर्ष पूर्व, केवल हिन्दी के ही नहीं, किन्तु समस्त भारत के एक मूर्धन्य कथाकार तथा चिन्तक श्री जैनेन्द्रकुमार ने, जैन पुराण-कथा पर आधुनिक साहित्य-स्वरूप में सृजनात्मक कार्य करने का प्रस्ताव मेरे सामने सहसा ही रक्खा था। योगायोग कि उस समय ठीक यही स्वप्न और प्रेरणा मेरे मन में भी जाग रही थी। एक टेलीपेथी-सी हुई। मैंने स्वीकार लिया। जैनेन्द्रजी ने इस योजना को भारतीय ज्ञानपीठ से सम्बद्ध करवा १५८ तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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