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________________ गया है। यह उन भगवान की ही जिनेश्वरी सरस्वती का सम्मान है : हमारा नहीं ! उन महाप्रतापी ज्योतिर्धर के पुण्य-परमाणु, और उनकी कैवल्य-प्रभा के प्रकाशपरमाणु इस समय समस्त भूमण्डल के लोकाकाश में उभर आये हैं। उन्हीं में से एकाएक उन प्रभ की सारस्वत कृपा के वरदान-स्वरूप यह कृति भी फिर से उभर आयी है। हमारा इसमें कोई कर्त त्व नहीं। 'चिद्भाव कर्म, चिदेश कर्ता, चेतना किरिया जहाँ' के अनुसार हम तो केवल अपने ही चिद्-स्वरूप के कर्ता हैं। उस परम कर्त त्व की स्फुरणा में से जो भी कोई कृतित्व यहाँ वाणी में प्रकट होता है, उसके हम निमित्त मात्र होते हैं। वासुदेव कृष्ण ने ठीक ही कहा था : 'निमित्त मात्रं भव सव्यसाचिन् !' आप सब का अतिशय कृतज्ञ हूँ, कि इस सम्मान के निमित्त से आपने मुझे अपना निरीह निज-स्वरूप महसूस करने का अवसर दिया। लगता है, मिट गया हूँ, आपा खो गया है : केवल शुद्ध आप्तभाव के चरणों में नीरव, नम्रीभूत, समर्पित हो कर रहा गया हूँ। गत अक्टूबर में मेरी पत्नी अनिला रानी जैन अपनी एक 'मानता' पूरी करने को श्रीमहावीरजी जाना चाहती थीं। मेरा बेटा चि. डॉक्टर ज्योतीन्द्र जैन, हाल ही में वियेना विश्वविद्यालय से डॉक्ट्रेट लेकर लौटा था। वह निर्वाणोत्सव के उपलक्ष्य में स्विट्जरलेण्ड में होने वाली जैन कला-संस्कृति-प्रदर्शनी के एक संयोजक के नाते भारत में जैन कला-संस्कृति के अध्ययनार्थ एक फ़ेलोशिप लेकर यूरोप से आया था। वह प्रमुख जैन तीर्थों और संस्कार-क्षेत्रों में घूम कर, वर्तमान जैन साधु-श्रावक, पूजाउपासना, प्रतिष्ठा आदि की चर्या और पद्धति का फोटोपूर्वक अध्ययन करना चाहता था। इस निमित्त उसे भी श्रीमहावीरजी जाना था। मेरे मन में भगवान् पर महाकाव्य लिखने का संकल्प उदित हो रहा था। सो मैं भी उनके साथ हो लिया। ___ मेरे अंतरंग में स्पष्ट प्रतीति-सी हो रही थी, कि श्रीगुरु की जिस यौगिक कृपा से मैं इस समय आविष्ट हूँ, उसके तले श्री महावीर प्रभु के अनुग्रह का कोई दृष्टान्त वहाँ मुझे अवश्य प्राप्त होगा।"उस कृपा का प्रथम चरण यह कि श्री महावीरजी में भगवद्पाद गुरुदेव श्री विद्यानन्द स्वामी का दर्शन-मिलन पहली बार उपलब्ध हुआ। परिचय पाते ही वे बोले : “बीस बरस से मैं तुमको खोज रहा हूँ। तुम्हारा 'मुक्तिदूत' मैं कई बरस तक सिरहाने लेकर सोता था। उसे बारम्बार पढ़ कर मैंने हिन्दी का अभ्यास किया। कई वाक्य उसके मुझे याद हो गये थे। मझे तुम्हारी क़लम चाहिये-निर्वाणोत्सव के उपलक्ष्य में भगवान् के युगतीर्थ का और उनकी जीवन-लीला का संकीर्तन-गान करने के लिए।' मैं कृतार्थता से स्तब्ध हो गया। एक भव्य दिगम्बर योगी, महावीर का आत्मज, मुझे खोज रहा था ! ...."मेरा कवित्व धन्य हो गया : कवि के रूप में मेरा जन्म लेना सार्थक हो गया। योगी १५६ तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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