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________________ महावीर ने साधना के दो मार्ग सामने रखे-एक महाव्रत, जो सम्पूर्ण व अनागार हैं अर्थात् जिसमें कोई विकल्प या छूट है ही नहीं । आत्मगत भूमिका पर यह पूर्ण निर्ममत्व है तथा लोकजीवन की भूमिका पर स्वामित्व का सम्पूर्ण विसर्जन, सर्वस्व का अनाबाध परित्याग । साधु का जीवन इस भूमिका पर नित्य संस्थित है। लेकिन उनके लिए जो अभी इस भूमिका से बहुत दूर हैं, महावीर ने साधना का एक ऐसा स्तर भी सामने रखा जो सागार है-जिसमें छूट है, विकल्प हे और जिसको सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठित किया जा सकता है। महावीर की कल्पना का 'श्रमणोपासक' या 'श्रावक' पूर्णतः अपरिग्रही नहीं हो सकता; लेकिन अणुव्रत के स्तर पर परिग्रह का निरन्तर नियमन करते हुए वह आत्म-साधना की ओर अपने जीवन का क्षेत्र-विस्तार करता जाता है। श्रावक के तीन मनोरथों में सबसे पहला यह है कि वह अल्प और बहु परिग्रह का विसर्जन करते हुए पूर्ण अपरिग्रह की भूमिका पर आरूढ़ हो जाए जो साधना का प्रवेश-द्वार है। अपरिग्रह अणुव्रत के अन्तर्गत आत्मगत और वस्तुगत दोनों ही भूमिकाओं पर परिग्रह का सीमाधिकारण तथा विसर्जन है। दोनों भूमिकाएँ परस्पर अविनाभाव एकत्व में आबद्ध हैं। अपरिग्रह की अणुव्रत-स्तरीय साधना के दो पक्ष हैं-आय की साधन-शुद्धि तथा उपलब्ध आय का सीमाधिकरण एवं विसर्जन । प्रथम के अन्तर्गत शोषण, अप्रामाणितकता आदि गलत साधनों से उपार्जन का निषेध है, जो उद्योग-व्यापार की नैतिक कसौटी निर्धारित कर देते हैं। देश एवं दिशा-परिमाण-व्रत के अन्तर्गत क्षेत्रीय स्वावलम्बन, लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास तथा बहुत लोगों का कार्य-नियोजन निष्पन्न होता है जो भारत-जैसे देश के लिए सहज ही बहुत लाभदायक सिद्ध हो सकता है। इसके अलावा अनेक उद्योग ऐसे हैं जिनका सर्वथा त्याग आवश्यक है-जैसे वे कार्य जिनमें बहुपरिमाण में जीवों का शोषण, पीड़न एवं हनन होता है तथा मानव का शोषण तथा वैषम्य, बेकारी तथा मुखमरी निष्पन्न होते हैं ? आज के संदर्भ में बड़े कल-कारखाने इनके अन्तर्गत आते हैं; और इसमें कोई संदेह नहीं कि वे देश में वर्ग-भेद, विषमता, शोषण एवं संघर्ष के निमित्त बने हैं । आज राष्ट्रीय स्तर पर नेतागण लघु व कुटीर उद्योगों के विस्तार तथा क्षेत्रीय कार्य-नियोजन की महत्ता स्वीकार कर रहे हैं। प्राप्त आय का उपयोग भी अपरिग्रह अणव्रत के अन्तर्गत सीमित हो जाता है, उपभोग-परिभोग-परिमाण-व्रत के अन्तर्गत आय का अत्यल्प भाग आवश्यक उपयोग में नियोजित होता है; शेष विजित हो जाता है। श्रावक-प्रतिक्रमण के व्रतों एवं अतिचारों के संदर्भ में अपरिग्रह का जो विवेचन उपलब्ध है वह एक जैन गृहस्थ के लिए अनिवार्य है। अगर वास्तव में उसे अंगीकार किया जाता, एक पूरे धार्मिक समाज द्वारा, तो भारतीय सामाजिकआर्थिक जीवन में अध्यात्म की तेजस्विता का प्रखर प्रकाशन होता, एक अभूतपूर्व मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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