________________
00
जैसे हिंसा उसके जीवन की तर्ज नहीं है, उसी तरह धर्म-जाति-वर्ग-लिंग आदि कठघरे भी मनुष्य के जीवन की तर्ज नहीं हैं। महावीर मानव-धर्म के हिमायती थे। मनुष्य अपना धर्म छोड़कर और कौन-सा धर्म अपनायेगा? उसका धर्म यही है कि वह सम्यक् बने। मनुष्य के जीवन की कोई संहिता हो सकती है तो केवल तीन संहिताएँ हैं--सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र्य । 'ही' और 'भी'
उन्होंने मनुष्य के हाथ में एक और कसौटी रख दी। मनुष्य जो देखता है, सुनता है, समझता है और खोजकर लाता है, उसके परे भी कुछ है। अपने ही ज्ञान, अनुभव और अहंकार में डूबा मन 'ही' पर टिक जाता है। समझता है उसने जो देखा-पाया-जाना वही तो सच्चा है; लेकिन इस परिधि के बाहर भी कुछ है जिसे और कोई देख, परख सकता है। मनुष्य की बुद्धि को इस 'भी' पर टिकाने में महावीर ने गहरी साधना की। विज्ञान-युग में आइन्स्टीन के इस थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी-सापेक्षवाद को प्रयोगशाला से सिद्ध कर दिखाया है। मनुष्य को सहज बनाने में, नम्र बनाने में, उसकी बुद्धि को खुली रखने में, उसे अहंकार से बचाने में और इस व्यापक जगत् का सही आकलन करने में यह सापेक्षवाद बड़े महत्त्व का तत्त्व है।
इस तरह महावीर अपने युग के तीर्थंकर थे। उन्होंने मनुष्य के जीवन की तर्ज ही बदल दी। उसे वे हिंसा से अहिंसा की ओर ले गये, वैर से क्षमा की ओर ले गये, घुणा से प्रेम की ओर ले गये, तृष्णा से त्याग की ओर ले गये। तीर-तलवार के बजाय मनुष्य का आत्म-विश्वास अपने ही आत्मबल पर टिका। ईसा मसीह को यह कहने की हिम्मत हुई कि-'यदि तुम्हारे एक गाल पर कोई थप्पड़ मारे तो उसके सामने अपना दूसरा गाल कर दो।' मनुष्य के आरोहण में यह महत्त्वपूर्ण ऊँचाई थी। मीरा हँसकर गा सकी कि-'जहर का प्याला रानाजी ने भेजा, मीरा पी-पी हांसी रे।' त्याग, बलिदान, सहिष्णुता और क्षमा के उपकरण मनुष्य के हाथ लगे
और उसे अपने अनुभव से यह समझ में आया कि ये उपकरण घातक उपकरणों के मुकाबिले अधिक कारगर हैं। सारा पशुबल आत्मोत्सर्ग के सामने फीका पड़ जाता है। उलझन
यों महावीर ने मनुष्य को आत्म-विश्वास दिया, आत्म-बल दिया, सम्यक् दृष्टि दी और अपने ही भीतर बसे शत्रुओं से लोहा लेने की कीमिया मनुष्य के हाथ में रख दी। यह एक ऐसी साधना थी जिस पर अहिंसा-धर्म का हर राही चल सकता था। मनुष्य ने चलना शुरू किया। युगों-युगों तक चलता रहा और आज भी इसे निजी जीवन का आरोहण मानकर वह चल रहा है। एक से एक ऊँचे साधक आपको समाज में दीखेंगे--सब कुछ छोड़ देने वाले आत्मलीन महातपस्वी। वे अपने आपमें
१३४
तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org