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________________ बार एक बुढ़िया के सिर पर सब्जी की टोकरी रखवानी थी। बड़े-बड़े लड़के तो उसकी मदद करने नहीं आये, पर छोटे सुरेन्द्र ने सड़क पर गड़े मील के पत्थर पर खड़े होकर उसके सर पर टोकरी रखवा दी। सुरेन्द्र के तर्क सब से अलग होते। एक बार काम पूरा न करने पर गुरुजी ने बेंत लगाने के लिए सीधा हाथ आगे करने को कहा। सुरेन्द्र ने दोनों हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा--"गलती है तो दोनों हाथों की है, मारना हो तो दोनों को मारिये ।" वैसे ही एक बार अच्छी नेकर गीली होने के कारण सुरेन्द्र फटी नेकर पहने थे। गुरुजी नाराज हुए। अगले दिन सुरेन्द्र वही नेकर उलटी पहन आये । गुरुजी के पूछने पर उनका जवाब था कि नेकर फटी है मगर उसमें से कुछ दिखायी नहीं दे सकता । भविष्य में जिसे कुछ पहनना ही नहीं था उसे फटी नेकर की क्या चिन्ता ? खेलने में और वक्तृत्व के कार्यक्रमों में सुरेन्द्र सदा आगे रहते । सुरेन्द्र की टीम हार जाने पर, विरोधी दल के नेता से झगड़ा हो जाने के बाद भी, गले लगाकर बधाई देने का काम सुरेन्द्र ही कर सकते थे । जहाँ उनमें यह उदारता थी वहाँ नियमों के प्रति हठ भी था। तड़के उठने में देर हो जाने के कारण एक बार सुरेन्द्र को गुरुजी की डाँट सुननी पड़ी । बस, उन्होंने उसी दिन निश्चय कर लिया कि वे ही सब से पहले उठेंगे और बच्चों को उठाने की घंटी खुद ही बजायेंगे। रात को घंटी के नीचे इसलिए सोये कि देर न हो जाए और रात में तीन-चार बार उठकर घड़ी देखी। गुरुजी को उस दिन किसी कारण से उठने में देर हो गयी, मगर घंटी समय पर ही बजी, क्योंकि सुरेन्द्र तो सही समय का इंतजार ही कर रहे थे। शारीरिक कष्ट सहन करने की उनकी क्षमता भी अद्भुत थी। एक बार सुरेन्द्र के कान के पास एक बहुत बड़ा फोड़ा हो गया। उन्होंने उसे फोड़कर मवाद निकाल देने के लिए कहा। यही किया भी गया । मवाद निकालते समय देखने वाले दर्द से विचलित हो गये, पर सुरेन्द्र के मुह से 'उफ्' तक न निकली। इन्हीं दिनों सुरेन्द्र में देशभक्ति की भावना का उत्स भी फट निकला। वह १९३०-३१ का समय था। महात्मा गांधी का आन्दोलन जारी था, और उस आन्दोलन का प्रभाव बालक सुरेन्द्र पर भी गहरा पड़ा। __ सन् १९३७ में सुरेन्द्र के गुरुजी आश्रम छोड़कर चले गये। सुरेन्द्र ने भी आश्रम छोड़ दिया । संगीत सीखने की उनकी इच्छा थी। एक ब्राह्मण संगीतज्ञ के यहाँ चार माह रहकर उन्होंने संगीत सीखा और फिर घर चले आये। पिताजी को यह बात पसन्द नहीं आया। अब सुरेन्द्र ने एक दोस्त की चक्की पर काम करना शुरू कर दिया, और फिर एक दिन पुनः संगीत सीखने जाने की वात कहकर घर छोड़कर पूना चले गये। सुरेन्द्र का व्यक्तित्व इतना आकर्षक था कि कोई भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। उन्हें पूना की एम्यूनीशन फैक्टरी में काम मिल गया। कोरे किताबी १४ तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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