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________________ मुनिश्री विद्यानन्द : जैसा मैंने देखा-समझा मेरा तो कभी-कभी ऐसा विश्वास हो जाता है कि आज २५०० वर्षों के बाद जो स्थिति (जनता की दृष्टि में) तीर्थंकर महावीर की है, वही स्थिति आज से २५०० वर्षों बाद मुनिश्री विद्यानन्द की भी हो सकती है। 0 पद्मचन्द जैन शास्त्री परम पुरुष विद्यानन्दजी के सर्वप्रथम दर्शन मुझे १९६३ में दिल्ली-वर्षावास में हुए। उन दिनों वे समन्तभद्र विद्यालय में विराजमान थे । मैंने देखा-मुनिश्री मध्यममार्गी हैं । और वे किसी भी विषय पर धारा-प्रवाह जन-मन-उद्बोधक वाणी बोलते हैं। वे जो बोलते हैं परिमार्जित और परिपक्व । जनसाधारण को भी उनके विचार हृदयंगम करते देर नहीं लगती । वे उभयतः शरीर और जाति-पंथ-संप्रदायगत भावनाओं की अपेक्षा से दिगम्बर हैं । वे अन्य बहुत से बाह्याचार-विपुल-साधु-त्यागियों से सर्वथा विपरीत उठे हुए हैं। उनके पास ज्ञानध्यान-क्रिया-शोधक उपकरणों के अतिरिक्त बाह्याडम्बर, परिग्रह, बस-मोटर, मणि-मंगे आदि अपने नहीं। अपने संघ के व्याक्तियों को संचय-मुक्त रहने की दिशा में आदेश देते हुए मैंने उन्हें अनेक बार देखा है, उनसे आदेश भी पाया है। इसके अतिरिक्त वे आगन्तुक से प्रभावकारी, सौम्य व्यवहार रखते हैं। इस कारण भी अभ्यागत उन्हें चाहता है-उनकी ओर आकृष्ट होता है। मैं भी आकर्षित हुआ-मैंने भी उनके चरणों में हिमालय से मालवा तक सैकड़ों मीलों की पदयात्रा की और अनेक अनुभव लिये-गरीबों के बीच और अमीरों के बीच भी। मुनिश्री विद्यानन्द का जीवन, उनके द्वारा प्रस्तुत धर्म की व्याख्या और जनता से उनका तादात्म्य तीनों इतने एकाकार हैं कि ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय में मन-वचन तथा काया किसी द्वार से किंचिन्मात्र भी अन्तर प्रतिभासित नहीं होता । जहाँ मुनिश्री का साकार जीवित शरीर समस्त जीवों से स्वाभाविक जन्म-जात समता रखता है, वहाँ उनके द्वारा प्रस्तुत धर्म की परिभाषा भी सर्वजीव समभाव से ओत-प्रोत रहती है और उनकी वाणी भी सदा विश्वकरूप-विश्वधर्म का प्रतिपादन करती है । फलतः उनके सम्पर्क में समागत लाखों-लाखों जन उन्हें भेद-भाव-शून्य त्रियोग से निरखते, सुनते और समझते हैं । विभिन्न ज्ञाता विभिन्न समयों में उन्हें चाहे जिस रूप में देखें, जानें और माने; पर निःसन्देह वे मुनिश्री की उस प्रतिमा को आँखों से ओझल नहीं कर सकते, जो जन-जन की दृष्टि में अपना अस्तित्व जमाये और हृदयों में स्थान बनाये हुए है । मूर्त-रूप में मुनिश्री को हम जैन दर्शन के 'स्यात्पदलांछित अनेकान्तवाद' के पूर्ण-प्रतीक रूप में पाते हैं-वे ऐसे भी हैं और वैसे भी हैं; मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक ११७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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