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________________ धर्म बदलें या फिर समाज उन्हें आत्मसात् करे । मामला मुनिश्री तक पहुँचा । उन्होंने दूसरे ही दिन अपार जन-मेदिनी के बीच घोषणा की कि वे मुलतान से आये भाइयों की कालोनी में विहार करेंगे और जब तक जयपुर-समाज उन्हें मिला नहीं लेगी वे वहीं रहेंगे । मुनिश्री वहां गये, जिनालय बना और अन्ततः मुलतानी जनों को मिलाया गया। यह था एक प्रखर सूर्योदय जिसे राजस्थान ने देखा। ___ जयपुर-वर्षायोग के बाद मुनिश्री विद्यानन्दजी श्रमण-संस्कृति की सार्वभौम अन्तरात्मा का शंखनाद करते हुए भगवान् ऋषभदेव की साधना-भूमि हिमालय की ओर बढ़े। श्री बद्रीनारायणजी की यात्रा करते हुए उन्होंने श्रमण और वैदिक संस्कृतियों के बीच कई आध्यात्मिक अनुबन्ध किये और चारों ओर समन्वय और सौहार्द की निर्मल धारा प्रवाहित की। कैलाशवासी श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार के स्नेहाग्रह पर मुनिश्री ऋषिकेश एवं हरिद्वार गये और वहाँ अपनी अनैकान्तिनी वाणी से जनता-जनार्दन को उपकृत किया। श्री बद्रीनारायण तीर्थ के प्रवेश-द्वार में भगवान पार्श्वनाथ का एक अत्यन्त प्राचीन जिनालय है। अलकनन्दा के मनोज्ञ तट पर स्थित यह मन्दिर वर्षा के थपेड़े खाकर बिलकुल जीर्ण-शीर्ण हो गया था। समाज के आपसी मतभेद के कारण मन्दिर की हालत इतनी दयनीय थी कि वह जलाऊ लकड़ी की टाल के रूप में परिवर्तित हो गया था। मुनिश्री ने श्रीनगर-समाज के नेताओं को एकत्रित किया; किन्तु घोर निराशा हुई। मुनिश्री मौन रहे किन्तु उन्होंने श्रीनगर में वर्षायोग का निश्चय कर लिया। उन्होंने अपने इस दृढ़ संकल्प के साथ पास के ही मठ में अपना पड़ाव डाल दिया और जैन-जैनेतरों की एक सभा बुलायी। सब ने उत्साहपूर्वक सहयोग का हाथ बढ़ाया और कुछ ही दिनों में जलाऊ-लकड़ी की टाल एक सुन्दर जिनालय में परिवर्तित हो गयी। जिनालय के इर्द-गिर्द एक उद्यान बनाया गया, जहाँ सुयोग से जिनाभिषेक के लिए एक जलस्रोत भी निकल आया । फिर एक धर्मशाला बनी और आपसी बैर समाप्त हो गया । देश-भर के लोग श्रीनगर पहुँचे और हिमालय एक आध्यात्मिक तीरथ बन गया। इधर मालवा में भी मुनिश्री की शुभ्र कीर्ति जन-जन में फैली। इन्दौर से हम लोग श्रीनगर पहुँचे। इस अद्वितीय तपस्वी के दर्शन से कृतकृत्य हुए और प्रार्थना की कि "मुनिश्री, आप मालव भूमि को अपने मंगल विहार से उपकृत कर ।” मुनिश्री ने आश्वस्त किया कि वे प्रयत्न करेंगे किन्तु साथ ही यह भी कहा “मैं किसी बन्धन में नहीं बंधता। निग्रन्थ हूँ, वीतराग-पथ का पथिक । मुझे तो भारत के चप्पे-चप्पे में श्रमण-संस्कृति की प्रतिध्वनियां सुनायी देती हैं। अब हम इसे किसी कैद में नहीं रख ११२ तीर्थंकर | अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520601
Book TitleTirthankar 1974 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1974
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size5 MB
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