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जान्युआरी - २०२०
पापि बहुदुखी देखीइ इम तुं संशय कापि ॥४०॥ भावि० ॥ तीन सया स्यूं व्रत धर्यो मेतारय तब आइ ।। नही परलोक तुं संसई जातिसरण किम थाय ॥४१॥ भावि० ॥ इम कही सो पणि बूझव्यो तीनसयां परिवार । विबुध प्रभास पधारीआ, नवि निरवाण विचार ॥४२॥ भावि० ॥ मोख्य करमखय जाणिवो इम छइ वेदनि वाकि । तु तुझ मनि संदेहो कां मुगति छती चित ताकि ॥४३॥ भावि० ॥ प्रभु इम कही सो बूझवी दीख्यो तिशत समेत । इम एकादश गणधरा त्रिपदी लिं श्रुतहेतु ॥४४॥ भावि० ॥ अंग उपांग पूरव रची ऊभा प्रभुपदपंति । सुरभि चूरण हरि थालथी प्रभु गणधर शिरि दंति ॥४५॥ भावि० ॥ गणिपद तीरथ अणूजतां आणी चंदनबाल । दीखी बहु नृपकुमरि स्यूं वरिसइ कुसुम सुरमाल ॥४६॥ भावि० ॥ संघ चतुरवधि थापीओ बलि लावि महीपाल । इम करतउ वीर ध्याईओ दुरित हरई त्रिणि काल ॥४७॥ भावई पटोधर वीरनउ० ॥ इति विगतमोहं विजितकोहं भुवनबोहं पारगं संसया(य अ)पोहं कुगतिरोहं जगतिसोहं पारदं । केवलालोकं नमत लोका वीर-पुरुषोत्तमवरं सिरि विजयदाणमुर्णिदसेवक सकलचंद शुभाकरं ॥४८॥
इति श्रीगणधरप्रबोध श्रीवर्धमानस्तवनम् ॥ संवत् १६१६ वर्षे फागुमासे शुक्लपक्षे पूर्णिमायां तिथौ लिखिता ॥
अज्ञातकर्तृक
श्रीआदिनाथस्तुतिः ॥ युगादिपुरुषेन्द्राय युगादिस्थितिहेतवे । युगादिशुद्धधर्माय युगादिमुनये नमः ॥१॥ ऋषभाद्या वर्धमानान्ता जिनेन्द्रा दश पञ्च च । त्रिकवर्गसमायुक्ता दिशन्तु परमां गतिम् ॥२॥