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________________ २०२ अनुसन्धान-७५(१) सभा - भावनगर, ई. १९३६। । ५१. विशेषावश्यकभाष्य - १, पृ. १२९-१३१, प्र. दिव्यदर्शन ट्रस्ट - मुंबई, सं. २०३९ । ५२. "अब मुनिराज पुण्यविजयजी ने संघदास और सिद्धसेन की एकता या उन दोनों के सम्बन्ध की जो संभावना की है, उस पर भी विचार किया जाता है । जिस गाथा का उद्धरण देकर संभावना की गई है, वहाँ “सिद्धसेन' शब्द मात्र श्लेष से ही नाम की सूचना दे सकता है। क्योंकि सिद्धसेन शब्द वस्तुतः वहाँ संप्रति राजा के विशेषण के रूप में आया है, नाम-रूप से नहीं । बृहत्कल्प में उक्त गाथा प्रथम उद्देशक के अंत में (३२८९) आई है, अतएव श्लेष की संभावना के लिए अवसर हो सकता है। किन्तु निशीथ में यह गाथा किसी उद्देश के अन्त में नहीं, किन्तु १६ वें उद्देशक के २६ वें सूत्र की व्याख्या की अंतिम भाष्यगाथा के रूप में (५७५८) है । अतएव वहा श्लेष की संभावना कठिन ही है । अधिक संभव तो यही है कि आचार्य को अपने नाम का श्लेष करना इष्ट नहीं है, अन्यथा वे भाष्य के अंत में भी इसी प्रकार का कोई श्लेप अवश्य करते । हाँ, तो उक्त गाथा में आचार्य ने अपने नाम की कोई सूचना नहीं दी है, ऐसा माना जा सकता है।" - वही पृ. ४० । ५३. बृहत्कल्पसूत्रम् - ६, 'बृहत्कल्पसूत्र : प्रास्ताविक', पृ. २०, सं. मुनि पुण्यविजयजी, प्र. जैन आत्मानन्द सभा - भावनगर, ई. १९४२ । ५४. ज्ञानांजलि, हिन्दी विभाग, पृ. ३७ । ५५. गाथासाहस्री । ५६. निशीथचूर्णि में २० वे उद्देश में अन्तिम गाथा । ५७. नन्दीसूत्र-चूर्णिः, पृ. ५६, सं. मुनि पुण्यविजयजी, प्र. म. जै. वि. - मुंबई, ई. १९६६ । ५८. मूलग्रन्थ में पृ. २३ । ५९. बृहत्कल्पसूत्रम् - १, पृ. २७, सं. मुनि पुण्यविजयजी, प्र. जैन आत्मानन्द सभा - भावनगर, ई. १९३३। ६०. नन्दीसूत्र-चूर्णिः, पृ. ५२-५५, सं. मुनि पुण्यविजयजी, प्र. म. जै. वि. - मुंबई, ई. १९६६ । ६१. मूल ग्रन्थ में पृ. ७३-७४ । ६२. मूल ग्रन्थ में पृ. २४ ।
SR No.520576
Book TitleAnusandhan 2018 11 SrNo 75 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2018
Total Pages220
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size19 MB
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