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सप्टेम्बर
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२०१८
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अन्त (ग्रन्थ का) : कल्पचूर्णी समाप्ता ॥ ग्रन्थ १६००० अंकतोऽपि । संवत् १२१८ वर्षे द्वि. आषाढ शुदि ५ गुरावद्येह श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजावलीविराजितसमलंकृत महाराजाधिराज परमेश्वर परमभट्टारक उमापतिवरलब्धप्रसाद महाहवसंग्रामनिर्वृढप्रतिज्ञाप्रौढनिजभुजरणाङ्गणविनिर्जितशाकंभरीभूपाल श्रीमत्कुमारपालदेवकल्याणविजयराज्ये तत्पादपद्मोपजीवित महामात्य - श्रीयशोधवले श्री श्रीकरणादौ समस्तमुद्राव्यापारान् परिपन्थयति सतीत्येवंकाले प्रवर्द्धमाने । गम्भूता-चतुश्चत्वारिशच्छतपथके देवश्री भोपलेश्वरशासनारूढभुज्यमानराजश्रीवैजलदेवेन पट्टितचाहरपल्लिग्रामे तद्वास्तव्य श्रे० साउकड व्यव० शोभनदेवेन कल्पचूर्णिपुस्तकं पुस्तकसवलकद्रव्यं वृद्धिं नीत्वा तेनैव श्रीमज्जिनभद्राचार्याणामर्थे लेखक सोहडपार्श्वाल्लिखापितेति । यादृशं पुस्तके दृष्टं० ॥
सुरसरि सुरगिरि सुरतरु सुरनाहो जाव सुरालया संति । विउसेहि पढिज्जंतं ताव इमं पुत्थयं होउ ॥
मंगलं महाश्रीः। शुभं भवतु लेखक - पाठकयोः ॥ पत्र २८१ ।
४. खं. संज्ञक प्रति । यह प्रति खंभात - स्थित शान्तिनाथ जैन ताडपत्रीय
भण्डार की क्र. २५ वाली प्रति है । इसमें २४० पत्र हैं, और संभवत: १४वीं शताब्दी की है। इसमें कल्पचूर्णि - प्रथम उद्देश पर्यन्त है। इसकी जेरोक्स नकल हमारे समक्ष थी ।
आरंभ : नमः प्रवचनाय । मंगलादीणि सत्थाणि... ॥
अन्त : इति भगवतः कल्पचूर्ण्य प्रथमोद्देशकः परिसमाप्तः ॥ बृहच्चूर्णि
ग्रन्थाग्रं ८७०० ||
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इस सम्पादन में हमने भां. संज्ञक प्रति पर अधिक आधार रखा है । क्योंकि उसमें शुद्धि अधिक लगी, और पाठ भी सुसंगत मिलते थे । तथापि दूसरी सभी प्रतियों में भी जहाँ अर्थसंगति की दृष्टि से अधिक योग्य पाठ प्राप्त हुआ, वहाँ उन प्रतियों का भी उपयोग किया ही है । ऐसे स्थानों पर भां. प्रति का पाठ टिप्पणी में पाठान्तर - स्वरूप रखा है।
लघुभाष्य की एक स्वच्छ वाचना कल्पवृत्ति - ग्रन्थ में मुद्रित है । सामान्यतया तो यहाँ वह वाचना ही ली गई है। फिर भी जहाँ जहाँ चूर्णिसम्मत पाठ और