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आवे. परंतु आमां परम्परानो दोष नहि कढाय. परम्परा पासे विवेकनी जेटली अपेक्षा राखीओ तेटली ज, बल्के तेथी अनेक गणी अधिक विवेकनी अपेक्षा, संशोधन पासे पण राखवानी होय. ओ वात पण भूलवी न जोईओ...
संशोधन अटले परम्परानो लोप नहि. परम्परा उपर प्रहार करवो कांई संशोधननो लक्ष्यांक नथी - न होय - न होवो जोई. संशोधननो एक ज अर्थ होय : परम्परामां, काळवश, प्रवेशी गयेली विकृतिओनी दूर करवी. हा, अर्बु जरुर बने के आवं विकृति-निवारण, क्यारेक के घणीवार, कोईने परम्परा परना प्रहाररूप के आघातप्रद के अमान्य बनी बेसे. उपर विवेकदृष्टिनी वात करी तेनो उपयोग अहीं ज आवश्यक बने.
आपणुं ज्ञान, अध्ययन, परम्परानुसारी भले होय, परन्तु तेमां जो विवेकनुं उचित संम्मिश्रण करवामां आवे, तो आपणे रूढिजड के ज्ञानजड न बनी जइसे अने परम्परानुं सम्मार्जन करी आपनारा, लाभकारक संशोधनथी वंचित न रही जइओ. फरी, विवेकदृष्टि से सर्वत्र अनिवार्य छे. अस्तु..
- शी.