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________________ मार्च - २०१६ १६५ प्रवृत्तिनी सफलता-विफलताथी ज्ञाननी यथार्थता-अयथार्थता अनुमित थई शके छे. आ मत अनुभवना नक्कर आधार पर स्वतः प्रामाण्यग्रहण के परतः प्रामाण्यग्रहणना अकान्तने नकारे छे. अने अनेकान्तवादने पुरस्कृत करे छे. क्यांक आपणे जाते ज ज्ञाननी यथार्थता-अयथार्थताने जाणी लई छीओ अने क्यांक, संशयितपणामां, प्रवृत्तिना आधारे अने जाणी शकीले छीओ. आ आपणो रोजिंदो अनुभव छे. अनी उपेक्षा करीने कोई अक ज पक्षनो आग्रह राखीओ तो ओ खण्डनीय ज बने. स्वतःप्रामाण्यवादना मतमां अनभ्यासदशाना ज्ञानगत प्रामाण्यना संशयनो प्रश्न जन्मे छे अने परतःप्रामाण्यवादना मतमां अभ्यासदशांना ज्ञानगत प्रामाण्यनी स्वतः अनुभूतिनी समस्या ऊठे छे. माटे बन्ने अस्वीकार्य बने छे. अने बदले स्याद्वादना अवलम्बने कथञ्चित् पक्ष ज अनुभवसिद्ध अने युक्तिपुरस्सर स्वीकारनो विषय बनी शके. . स्वतःप्रामाण्यवादीओ उत्पत्तिमा प्रामाण्यने अपेक्षित गुणोने 'दोषाभाव' तरीके जुओ छे, अने अथी परतः पक्षने नकारे छे. जैन दर्शन कहे छे के चक्षुनी निर्मलता व.ने 'गुण' तरीके जुओ के 'दोषाभाव' तरीके, ओ आखरे तो 'पर' ज छे, अने तेथी ज तेमनी अपेक्षा राखीने उत्पन्न थता प्रामाण्यने 'परतः' ज गणाय, 'स्वतः' नहि. ओक वात ओ पण ध्यानपात्र छे के स्वतःप्रामाण्य वादी मी बालक व होय के परतःप्रामाण्यवादी नैयायिक व. होय, बन्ने अप्रामाण्यनी ज्ञप्तिमा ते 'परतः' पक्षनो ज आग्रह राखे छे. जैन दर्शन अहीं पण पूर्वोक्त युक्तिओन बळे अभ्यासदशामां अप्रामाण्यनी स्वतः ज्ञप्ति अने अनभ्यासदशामां परतः ज्ञप्ति स्वीकारे छे तेमज पूर्वोक्त अकान्तवादनुं खण्डन करे छे. आटली भूमिका बाद आपणे न्यायपञ्चानन श्रीअभयदेवसूरि रचित सन्मतितर्कनी 'तत्त्वबोधविधायिनी' वृत्ति अन्तर्गत प्रामाण्यवादनी चर्चा सक्षेपमा जोइशं. आ चर्चा जोती वखते बे वात ध्यानमा राखबानी छ : १. आचार्य अत्रे मीमांसकोने स्वतःप्रामाण्यना पक्षधर तरीके अने
SR No.520570
Book TitleAnusandhan 2016 05 SrNo 69
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2016
Total Pages198
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size12 MB
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