________________
१५८
अनुसन्धान-६९
अन्य कोईनी अपेक्षा नथी. ज्यारे अप्रामाण्यनो बोध परतः (-अन्य ज्ञानथी सापेक्ष पणे) जन्मनारो छे.
स्वतःप्रामाण्यवादीओनो आ पक्ष स्वीकारवा पाछळनो मुख्य तर्क छे के ज्ञानमां ज्यां सुधी प्रामाण्यनो निश्चय न थाय, त्यां सुधी जे ज्ञानने अनुसरीने पुरुषनी ते ज्ञानना विषयभूत पदार्थ विशे प्रवृत्ति थती नथी ज. दा.त. "मने 'आ घट छे' अq ज्ञान थयुं छे अने सामे देखातो पदार्थ घडो ज छे' आवो निश्चय न जन्मे त्यां सुधी पुरुष घडो लेवा नथी ज जवानो, अने आ निश्चय स्वतः प्रामाण्यज्ञप्ति स्वीकारो तो ज सम्भवे. जो ज्ञानने अनुसरीने क्रिया थाय पछी ज ज्ञानना प्रामाण्यनो निश्चय थई शके अवो आग्रह राखीओ तो तो ओ निश्चय वगर पुरुषनी प्रवृत्ति थशे ज कई रीते ? माटे कोईपण ज्ञानमा पहेलां प्रामाण्यनो निश्चय थाय छे, पछी ते ज्ञान पुरुषने पदार्थप्रकाशक बनवा द्वारा प्रवर्तक (-प्रवृत्तिनुं जनक) बने छे. अने मे प्रवृत्ति थया पछी जो ओ प्रवृत्ति संवादी बने ओटले ज्ञान अने क्रियामां कोई विरोध न आवे तो पूर्वगृहीत प्रामाण्यनी पुष्टि थाय छे अने प्रवृत्ति विसंवादी बने मतलब के ज्ञान करतां पदार्थ अन्यस्वरूपनो जणाय तो अप्रामाण्यनो निश्चय थाय छे.
आ मतमां अक मुख्य समस्या सर्जाय छे के सघळांय ज्ञानो प्रारम्भमां प्रमाण तरीके ज जणाय छे ओम स्वीकारीओ तो कोई दिवस कोई ज्ञान अंगे 'आ ज्ञान साचुं हशे के नहि' ओवो संशय थई शके नहि. अने आवो संशय तो आपणने बधाने थतो ज होय छे. तो आनो समन्वय कई रीते थई शके ? स्वतःप्रामाण्यवादीओ आ समस्याना समाधान माटे स्वतःप्रामाण्यनी ज्ञप्तिना लक्षणमां परिष्कार करीने 'दोषाभावे सति' उमेरे छे.३ ओटले के पोताना
१. "तस्मात् तत् प्रमाणम्, अनपेक्षत्वात् । न ह्येवं सति प्रत्ययान्तरमपेक्षितव्यम्, पुरुषान्तरं
वाऽपि । स्वयंप्रत्ययो ह्यसौ ।" - शाबरभाष्य १.१५ २. "यथा दूरात् प्रत्यक्षेणेन्द्रियेण जलादिज्ञाने जाते तत्र स्वत एव यथार्थज्ञानत्वरूपप्रामाण्यम__ वधार्य जलार्थी प्रवर्तते । ज्ञानग्रहे तद्गतप्रामाण्यस्याऽपि ग्रहात् ।" - तर्ककौमुदी ३. "स्वतोग्राह्यत्वं च दोषाभावे सति यावत्स्वाश्रयग्राहकसामग्रीग्राह्यत्वम् । ... न चैवं
प्रामाण्यसंशयानुपपत्तिः । तत्र संशयानुरोधेन दोषस्याऽपि सत्त्वेन दोषाभावघटितस्वाश्रयग्राहकाभावेन तत्र प्रामाण्यस्यैवाऽग्रहात् ।" - वेदान्तपरिभाषा-अनुपलब्धिपरिच्छेदः ।