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डिसेम्बर
२०१५
२९
पत्र
स्वस्ति श्रीवीरजिनं प्रणम्य राजनगरात् श्रीविजयसेनसूरयः सपरिकराः श्रीमति स्तम्भतीर्थे सुश्रावक पुण्यप्रभावक श्रीजिनाज्ञाप्रतिपालक सा. काहान मेघजी योग्यं धर्मलाभपूर्वकं लिखन्ति । यथाकार्यं च
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अत्र धर्मकार्य सुखिं निरवहइ छइ श्रीदेवगुरुप्रसादिं । अपरं च तुमारो लेख पुहुतु । समाचार प्रीछ्या । तथा तुम्हो धर्मोद्यम विशेषथी करयो । तथा अमारो धर्मलाभ जाणयो । जे वांछइ तेहनइ जणावयो । अम्हारी वती देव जुहारयो। तथा प्रश्नोत्तर लिखीइ छइ ।
महेसरी टाढिने दिहाढे मोक्षनइ अर्थिं महीसागरइं जाइ छइ, अनइं मलेछ टाढि माहिं नमाज करइ छइ केवल मोक्षनइ अर्थि, ए बिहु तो सकामनिर्जरा कहीइ के अकामनिर्जरा कहीइ ए प्रश्न आसिरी तत्त्वार्थ प्रमुख शास्त्रनई अनुसारिं एहवुं जणाइ छइ जे कोई सम्यग्दृष्टीनी अपेक्षाई मिथ्यादृष्टीनइं थोडी निर्जरा होइ ते प्रीछयो ।
तथा परपक्षीना श्रावक तपागच्छना आचार्यपिं प्रतीष्ठावी देहरइ पूजइ तेहना धणीनई संसार वाधइ किंवा खूटइ ? ए प्रश्न आश्रि परपक्षीनई तपाना आचार्यपिं प्रतिष्ठा करावी प्रतिमा पूजतां संसार घटतो जणाइ छइ, पणि वाधतो जाण्यो नथी ते प्रीछयो ।
तथा श्रीभगवनजी पच्चक्खाण करावइ समकितधारी तथा परपक्षी तथा मिथ्यात्वीनइं, ते पच्चक्खाण मार्गानुसारी समझें छइ ते वातनु जिम समझ्युं होइ तिम प्रसाद करयो, ए प्रश्न आश्रि तथा तपागच्छना आचार्य प्रमुख सम्यग्दृष्टी तथा परपक्षी प्रमुखनइ जेहनई पच्चक्खाण करावइ ते सर्व पच्चक्खाण मार्गानुसारी जाण्युं छइ । पणि पच्चक्खाणनुं करणहार जो पच्चक्खाणनुं विधि जाणतो [न] होइ तो विधि समझावीन कराववुं एतलो विशेष जाणवुं ॥ इति भद्रम् ॥
(महावीर जैन विद्यालयना शताब्दीग्रन्थमां प्रकाशित)