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अनुसन्धान-६८
भय-व्याकुल रणझणकित-दंत, थरहर-तन चल-चक्षु सचिंत; तुझ समरन नर निरभय हुति, मुझ भयहर भय-पंजर-दंति! १४ तुम्ह निरखित पुलकित नर-देव, विकसित-दृग-जल-कृत-दुख-भेव; धन्य गिणै आतम आनंद, जय प्रभु! जगदानंदन-चंद! १५ तुम्ह कल्याणक-उच्छव-वेर, देव-घंट-टंकार-विपेर; परम-भक्ति-उछलत-उर-हार, हरखित हुय सुरवर सुविचार. १६ उच्छव प्रगट करै उत्ताल, तीन भुवनमाहें ततकाल; जैसें भुवनानंदन-चंद!, जय जय पारसप्रभु! सुखकंद! १७ [युग्मम्] केवल-जोति हरत अग्यांन, दरसित-सकल-पदार्थ-सुभान!; पाप-मलिन-जन-घूक-अगम्य!, तमहर! त्रिभुवन-दिनकर! रम्य! १८ नर-मति-महि तुम स्मृति-जल-सिक्त, हुय फल-युत दुख-दाह-वियुक्त; सूक्ष्म-अर्थ-विद-अंकुरचारु, द्यौ मति मुझ मति-महि-जलधारु! १९ वृद्धि-करण कल्याण-सुवल्लि, भव-दुख-वन-छेदन-नीसल्लि; दरसित-स्वर्ग-मोक्ष-पद-वाट, दूरित-वारण दुरगति-थाट. २० जग-जंतुनकै जनक समांन, जिनिं उपजायौ धर्म प्रधांना हितकारी पारसप्रभु! जयौ, सो जग-जंतु-पितामह भयौ. २१ [युग्मम्]
अथ पद्धडीछंद ॥ जैमाल ॥ जग-अरन-वासि बुद्धादिदेव, वण-असुर-दुष्ट-नरमंत्र-सेव; मद-मत्त ते हु पशु-व्रज-समांन, तुमसें प्रभु! होत पलायमान. २२ मिथ्याति-लोक-हिरदै सुगुप्त, रहति हैं सदीव अतिभीति-युक्त; इन हेतु भुवन-वन-सिंह! पास!, जिनराज-देव! कर पाप-नास. २३
[युग्मम्] फणि-फण-फुरंत-मणि-रयण-चारू!, फलिनी-तमाल-दल-वरण-धारू!, कमठोपसर्ग-संगम-अगंज!, परतिच्छ-पास! जय सुगुन-पुंज! २४ मन वचन मुज्झ चलश्च(?) प्रमांन, अविनीत-देह आलस-भरांण; महिमा तमेव सुप्रमांन देव, माऽवगन मोहि रख लेहु सेव. २५ नहि कौन कौन चित चिंत कीन, प्रभु! कौन वैन बोल्यौ न दीन; नहि कौन क्लेस किय हीनसत्त, तुम त्यक्त में न कछु सरण पत्त. २६