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जून - २०१५
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अनुसन्धान-६७
[तं कम्मं बंधइ जेण कम्मेण बद्धेण संसारसागरे भमति'
- वृद्धविवरण, पत्र २३२] जे एवं को. १ प्रति में भी 'भम' धातु वाला ही पाठ है।
अन्य आगमों की शैली भी इस प्रकार के प्रकरण में 'पतन' के स्थान पर 'भ्रमण' को ही पुष्ट करती है। [मा भमिहिसि भयावत्ते घोरे संसारसागरे' ।
- श्रीउत्तराध्ययनसूत्र २५/३अ (मजैवि.) २५/४० (स्वा.)] ["भोगी भमइ संसारे, अभोगी विष्पमुच्चई'
- श्रीउत्तराध्ययनसूत्र २५/३९ (मजैवि.) २५/४१ (स्वा.)] ['जमादिदित्ता बहवो मणूसा, भमंति संसारमणोवतग्गं'
- श्रीसूत्रकृतांगसूत्र १/१२/६ (मजैवि., मधु.)] श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र १/१/३/१६ (मजैवि., मधु.), श्रीप्रश्नव्याकरण १/३७ (मधु.) इत्यादि में भी 'भम' धातु के ऐसे प्रकरण में प्रयोग प्राप्त होते हैं।
'भम' धातु के अतिरिक्त भी 'भम' धातु के अर्थ को पुष्टि करने वाले अनेक सूत्रप्रमाण आगम में उपलब्ध हैं। श्रीभगवतीसूत्र में 'अणाइयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरियट्टइ' (१/१/११-मजैवि.) इस प्रकार का पाठ बहुशः प्राप्त होता है जिसमें चातुरन्त संसारकान्तार में पुन: पुन: अटन अर्थात् भ्रमण की बात कही है।
अत: यहाँ 'भमति' पाठ को समादृत किया गया है।
(७) द्वितीय अध्ययन की नवीं गाथा (२/९) 'जइ तं काहिसि भावं...' में '.... हडो, अट्ठिअप्पा भविस्ससि' यह पाठ प्रचलित है। यहाँ दोनों चूर्णिकारों ने 'हढो' पाठ का उल्लेख किया है।
['तो वाताइदो व हढो अद्विअप्पा भविस्ससि, जलरुहो वणस्सतिविसेसो अणाबद्धमूलो हढो' - अगस्त्यचूर्णि पृ. ४६]
['वायाइदो विव हढो अट्ठिअप्पा भविस्ससि, हढो णाम वणस्सइविसेसो सो दहतलागादिषु छिण्णमूलो भवति' - वृद्धविवरण पत्र ८९]
श्रीउत्तराध्ययनसूत्र में रथनेमि-राजमती संबन्धी ऐसे ही प्रसङ्ग में भी
पाठान्तर से रहित 'हढ' पाठ ही उल्लिखित है।
['...... हढो, अद्विअप्पा भविस्ससि' - श्रीउत्तराध्ययनसूत्र २२/४४ (मजैवि.) २२/४५ (स्वा.)]
वनस्पतिवर्णन प्रकरण में भी श्रीभगवतीसूत्र एवं श्रीप्रज्ञापनासूत्र में 'हढ' वनस्पति का उल्लेख हुआ है।
['णंगलइ-पयुय-किण्हा-पउल-हढ-हरेव्या-लोहीणं एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए' श्रीभगवतीसूत्र २३/२ (ते.)]
['जलरुहा अणेगविहा पण्णत्ता । तं जहा - उदए अवए पणए सेवाले कलंबुया हढे कसेरुया - श्रीप्रज्ञापनासूत्र १/५१ (मजैवि. मधु.)] ['किण्हे पउले य हढे हरतणुया चेव लोयाणी'
- श्रीप्रजापनासूत्र १/५४/५२ (मजैवि. मधु.)] श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र में भी 'हढ' वनस्पति का उल्लेख मिलता है - ['पणगत्ताए सेवालत्ताए कलंबुगत्ताए हढत्ताए कसेरुयत्ताए'
- श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र २/३/०३० (मजैवि. मधु.)] श्रीमद् उत्तराध्ययनसूत्र की शान्त्याचार्यकृत बृहदवत्ति तथा श्रीतिलकाचार्यकृत दशवैकालिकवृत्ति से भी 'हढ' पाठ पुष्ट होता है।
["वातेनाविद्धः - समन्तात्ताडितो वाताविद्धो भ्रमित इति यावत् हठो वनस्पतिविशेषः" - श्रीउत्तराध्ययनसूत्र, शान्त्याचार्यकृत बृहद्वृत्ति अध्ययन २२ गाथा ४४ की टीका, पत्रांक ४९५ अ]
["वाताविद्धः इव हठः" - तिलकाचार्यटीका, पृष्ठ २९८] 'हठ' का प्राकृत में 'हढ' बनता है। ["ठो ढः" - श्रीसिद्धहैमशब्दानुशासन ८/१/१९९]
अतः यहाँ उपर्युक्त प्रमाणों के आधार से "हढो, अट्ठिअप्पा भविस्ससि" पाठ स्वीकार किया गया है।
(१०) पञ्चम अध्ययन के प्रथम उद्देशक की अठारहवीं गाथा (५/ १/१८) 'साणीपावारपिहियं....' में 'अप्पणा नावपंगुरे' पाठ प्रचलित है।