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जून - २०१५
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(२) षष्ठ अध्ययन की १७ वी गाथा (६/१७) 'मूलमेयमहम्मस्स महादोससमुस्सयं.......' में 'तम्हा मेहुणसंसग्गं' यह पाठ प्रचलित है।
यहाँ अगस्त्यचूणि व वृद्धविवरण दोनों में 'संसरिंग' पाठ स्वीकृत
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अनुसन्धान-६७ एक नाम 'संसग्गि' भी बताया है।
[तस्स य णामाणि गोणाणि इमाणि होति तीसं, तं जहा १. अभं, २, मेहुणं, ३. चरंतं, ४. संसग्गि ।
- श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्र ८१ (मधु) ४/२ (ते)] अत: षष्ठः अध्ययन में 'तम्हा मेहुणसंसम्गि' पाठ का ही स्वीकार किया गया है।
(३) प्रथम चूलिका के प्रथम सूत्र (चू. १/१) 'इह खलु भो ! पव्वइएणं .....' में 'हयरस्सि-गर्यकुस-पोयपडागाभूयाई' पाठ प्रचलित है।
यहाँ दोनों चूर्णिकारों ने 'पडागार' पाठ मानकर व्याख्या की है।
['हयरस्सि-गर्तकुस-पोतपडागारभूताई.... जाणवत्तं पोतो, तस्स पडागारो सीतपडो, पोतो वि सीतपडेण विततेण वीचीहिं ण खोभिज्जति इच्छितं च देसं पाविज्णति' - अगस्त्यचूर्णि, पृष्ठ २४७-२४८]
['जाणवत्तं पोतो, तस्स पडागारो सीतपडो' - वृद्धविवरण, पत्रांक
३५३]
[तम्हा मेहुणसंसरिंग तम्हादिति पढमभणितदोसकारणतो मेहुणसंसग्गी सम्पर्कः - अगस्त्यचूणि, पृष्ठ ११६] [निग्गंथा सव्वपयत्तेण मेहुणसंसग्गी वज्जयंति त्ति
___ - वृद्धविवरण, पत्र २१९] आचार्य हरिभद्र ने व्याख्या करते हुए लिखा है कि -
[मैथुनसंसर्ग - मैथुनसम्बन्धं योषिदालापाद्यपि निर्ग्रन्था वर्जयन्ति' - हारिभद्रीय वृत्ति, पत्रांक १९८ अ(३/१६४)]
संभवतः हारिभद्रीय टीका में समागत 'संसर्ग' को देखकर प्राकृत में 'संसग्गं' पाठ स्वीकारा जाने लगा हो । किन्तु वस्तुत: 'संसरिंग' पाठ ही संगत है। 'संसग्ग' का ही संस्कृत रूपान्तरण 'संसर्ग' हो ऐसा नहीं है, 'संसग्गि' का भी संस्कृत रूपान्तर 'संसर्ग' ही होता है। इसी शास्त्र के ५/१/१० में 'संसग्गीए अभिक्खणं' पाठ है जबकि वहाँ भी टीका में 'संसर्गेण' पाठ ही उपलब्ध है। प्राकृत भाषा में इस प्रकार का स्वरपरिवर्तन होना असामान्य नहीं है।
'संसरिंग' पाठ की शुद्धता अनेक आगमप्रमाणों से सिद्ध है यथा - ["संसग्गि असाहु रायिहिं, असमाहि उ तहागयस्स वि" ।
- श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र १/२/२/१८ (मजैवि., मधु.)] ["खुड्डेहिं सह संसरिंग हासं कीडं च वज्जए"
- श्रीउत्तराध्ययनसूत्र १/९ (मजैवि., स्वा.)] ["विभूसा इत्थीसंसग्गी, पणीयरसभोयणं"
- श्रीदशवैकालिकसूत्र ८/५६ (मजैवि.) ८/५७ (स्वा.)] श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्र में चौथे आस्रव द्वार में अब्रह्म के तीस नामों में
श्रीतिलकाचार्य ने भी अपनी टीका में 'पडागार' पाठ मानकर व्याख्या की है। ['किं विशिष्टानि ? हयरश्मिगणाङ्कशपोतपटाकाराणि'
- तिलकाचार्यटीका, पृष्ठ ५०४] उपर्युक्त सभी व्याख्याकारों ने यहाँ 'पटाकार' का अर्थ 'सितपट' (श्वेतवस्त्र) किया है जो जहाज में लगने वाले पाल को व्यक्त करता है। यह अर्थ यहाँ प्रकरण संगत भी है।
'पडागार' पाठ पा. १, लासं., कोमू. २, से - इन प्रतियों में भी है।
उपर्युक्त स्थलों के अतिरिक्त श्रीनिशीथसत्र के भाष्य की चणि में उपलब्ध पाठ में भी 'पडागार' प्राप्त होता है। [भाष्य गाथा - दुविहो वि वसभा, सारेंति गयाणि वा से साहिति]
अट्ठारस ठाणाई, हयरस्सिगयंकुसनिभाई ॥