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निवेदन
अनुक्रमणिका
'संशोधन' ए धूळधोयानो धंधो छे; बहु ओछाने एमां रस पडे.
धूळधोया लोको शहर के गामना चोकसी/सोनी बजारना मार्ग परनी गटर/ खाळमां एकठा थयेला कांप/कचराने रोज सवारे एकठो करे, पोतानां ठाममां भरीने लई जाय, पछी गळणां/चालणी प्रकारनां विविध साधनो वडे ते कांपने गाळे, धुए, अने एम करता करतां कलाकोनी महेनत पछी ते सुंडलाओ-भरेला कांपमांथी तेमने थोडीक सोना के चांदीनी झीणी करचो मळी आवे, त्यारे तेमने तेमनी ए मजूरी, कांप-कचरा साथेनी, गंदवाड भरेली ने गंदा करी मकनारी महेनत, सार्थक थयेली लागे. पण आईं काम करनारा बहु ओछा-जूज-होय. धूळ धोईने सोनुं पामे ते आ धूळधोया.
संशोधकर्ने कार्य एक रीते आ धूळधोयाना काम जेवं ज गणाय, ग्रन्थसंशोधन होय, पुरातत्त्व होय, इतिहासमुं क्षेत्र होय के तेवू अन्य कोई पण क्षेत्र होय, एमां ढगलोएक सामग्री फेंदवानी-तपासवानी; तेमांथी सोनानी झीणी करचो जेवी, गुप्त-लुप्त बाबतो शोधी काढवानी; अने ते द्वारा ग्रन्थना अर्थने के इतिहासनी धारणाओने बदली नाखती यथार्थ भूमिका सरजी आपवानी.
आमां समयनो घणो व्यय थाय; श्रम - बौद्धिक अने शारीरिक पण घणो लागे; ते कर्या पछी पण घणीवार कशुं नवं हाथ न लागे तेवू पण बने अने तो पण हारवा-कंटाळवानुं न होय, पण पुनः नवेसरथी पोताना अन्यान्य शोधकार्यमां खूपेला ज रहेवार्नु होय; एक साचुकला अने सफल संशोधक माटे, एक सफल धूळधोयानी माफक ज, आ अपेक्षित अने आवश्यक स्थिति छे..
धूळधोयाने, छ-आठ कलाकना थकवी देनारा श्रम पछी, सोनानी एक कणी जडी जाय तो केटलो हरख थाय ! तो, एक संशोधकने, आकरा बुद्धिव्यायामने अन्ते, कोई नवो ज पदार्थ के तथ्य, मळी आवे तो केवी तृप्ति अनुभवाय!
- शी.
सम्पादन श्रीमुनिचन्द्रसूरि-प्रणीत कालविचारशतक सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १ १३मा शतकनी त्रण प्राञ्जल रचनाओ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि २१ अहो, वर बोलि
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि २७ श्रीसोमदेवसूरिरचितः
धरणविहारस्थ-युगादिदेवस्तवः (सावचूरिः) सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय ३६ श्रीजयचन्द्रसूरि-शिष्य-रचितं देलउलालङ्कार-ऋषभप्रभुस्तोत्रम्
सं. अमृत पटेल ४० पं. श्रीदेवधर्मगणिकृतं संस्कृतप्राकृतभाषानिबद्धं श्रीवृषभजिनस्तवनम्
सं. अमृत पटेल ४५ मुनि श्रीसाधुकीर्ति-रचित आषाढाभूति-प्रबन्ध सं. अनिला दलाल ४७ मुनि श्रीनेमिकुंजरकृत गजसिंहरायचरित्ररास
सं. किरीट शाह ६८ महोपाध्याय श्रीयशोविजयगणि-शिष्य श्रीतत्त्वविजयगणिरचित पांच लघुकृतिओ
सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय ८५ बाई मदैकवरनी बार व्रतनी टीप सं. मुनि धर्मकीर्तिविजय गणि ९२ स्वाध्याय आगमसूत्रों के शुद्धपाठ के निर्णयविषयक कुछ विचारबिन्दु
आचार्य श्रीरामलालजी म. ९७ विहंगावलोकन
उपा. भुवनचन्द्र १५४ पत्रचर्चा मस्करिन्/मङ्गुलि विशे
उपा. भुवनचन्द्र १६१ पूरवणी
मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १६३ एक शोधपत्र विषे संशोधन
विजयशीलचन्द्रसूरि १६५ नवां प्रकाशनो
१६७ आवरणचित्र-परिचय
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