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अनुसन्धान-६६
विहंगावलोकन
- उपा. भुवनचन्द्र
अनुसन्धाननो ६०मो अंक 'विज्ञप्तिपत्र विशेषाङ्क रूपे प्रगट करवानुं सम्पादकश्रीए विचारेलुं, तेने स्थाने विशेषाङ्कना चार भाग करवा पड्या (६०६३-६४-६५). दरेक अङ्क पूर्वना अङ्कथी मोटो थतो गयो. जैन साहित्यना एक पेटाप्रकार समा विज्ञप्तिपत्रो (वि.प.) एकत्र करवानुं अने सम्पादित करवानुं (अने हजी सुधी न थयेलं) आ मोटुं काम आ निमित्ते थवा पाम्युं छे. वि.पत्रो भेगां करवानू काम मूळमां ज कडाकूटवाळु छे. ए पत्रोने उकेली-वांचीसमजी वाचना तैयार करवी ए काम पण शारीरिक-मानसिक श्रम अने समय मागी ले. छन्द, अलङ्कार, कल्पनाविहार, ऐतिहासिक सन्दर्भो, कूटकविता, चित्रबन्ध, व्याकरणना कठिन/अप्रचलित प्रयोगो - आवु बधुं वि.प.मां ठसोठस भरेलुं होय. जुदा जुदा प्रदेश अने समयनी भाषाओ प्रयोजाई होय. पत्रोने क्षति पहोंची होय, लिपिकार द्वारा लेखनसमये भूलो थई होय - वि.प.ना सम्पादके आवा प्रश्नोनो सामनो करवानो होय छे. माटे, आ जे काम थयुं छे तेने मात्र सङ्ग्रह-संकलननुं काम कोई समजी ले तो तेमां तेनी आ क्षेत्रनी अज्ञता ज प्रगट थाय.
दरेक वि.प.नो परिचय/सारांश ते ते सम्पादक द्वारा अपायो छे. ते उपरान्त अनुसन्धानना सम्पादकजीए प्रत्येक वि.प. उपर अभ्यासनोंध लखी छे. आनाथी आ सङ्ग्रहनी सार्थकता वधी छे.
वि.प.नो विषय सीमित होय छे, रचनाशैली के माळखं पण परम्परागत रूपे निश्चित होय छे. तेम छतां कविओए साहित्यना उत्तम नमूना बने एवं रूप आ वि.प.ने आप्युं छे. वर्ण्य विषय एक समान होवा छतां एक बीजाने भूलावे एवां नावीन्यपूर्ण वर्णनो द्वारा विद्वान मुनिओए पत्रोने रसमय बनाव्या छे - बेठी नकलनो के नीरस एकविधतानो तो प्रश्न ज ऊभो थतो नथी.
प्रभुस्तुति, नगरवर्णन, गुरुपरम्परा, पर्युषण-चातुर्मासना वृत्तान्त, क्षमापना, विनन्ति – वि.प.नां आ सामान्य विषयवस्तु छे. गुरु, राजा, नगर, नगरजनो,