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________________ २७० अनुसन्धान-६४ बिराजमान त्रण मूलनायकोनी खूबीथी स्तुति करी छे. व्याकरणना नियमो, समास, सन्धि, अनेकार्थ शब्दो इत्यादिनो युक्तिपूर्वक उपयोग करी आवां बौद्धिक चमत्कृतिभाँ काव्यो रची शकाय छे; एमां प्रखर विद्वत्ता अने कल्पनाशक्ति तो जोईए, परन्तु आवी कृतिओने समजवा माटे पण एवी ज विद्वत्ता/कल्पनाशक्ति जोईए. एवा अन्य विद्वान मुनिओए आवां कठिन काव्यो पर टिप्पण/अवचूरि/टीकाओ रचेली होय छे ते थकी आवां काव्योनो रसास्वाद माणी शकाय छे. श्रीविजयसेनसूरिनी प्रशस्ति रूपे रचायेल 'कीर्तिकल्लोलिनी' खण्डकाव्य भक्तिरस-काव्यरसथी छलोछल रचना छे. हेमविजय गणीनुं कवित्व अभिभूत करी दे छे.. वि.सेनसूरिजीना प्रताप, कीर्ति अने सौभाग्य, आमां अति उत्कटताथी रंगदर्शी वर्णन थयुं छे. आ कृति त्रण त्रण विद्वानोना हाथे सम्पादन पामी अहीं प्रकाशन पामी छे. आ जोगानुजोग आनन्ददायक छे अने 'सम्पत्स्यते हि मम कोऽपि समानधर्मा' - ए प्रसिद्ध पंक्तिनुं स्मरण करावे छे. 'नालिकेरसमाकाराः' ना ४४ अर्थवाळी कृति उपाध्यायजीनी ज होवानो पूरो संभव छे. लेख अस्तव्यस्त जणाय छे ते आ पत्र काचो खरडो होवानुं सूचवे छे. खरडामा सुधारा-उमेरा थाय, पछी प्रथमादर्शमां लखाय. आ खरडो खरडारूपे ज रही गयो छे अथवा क्यांक आनी सारी नकल पडी पण होय. पं. श्रीगम्भीरविजयजीए जर्मन विद्वान हर्मन जेकोबीने जैन आगमोमां आवता मांस-मत्स्य जेवा शब्दोना अर्थ अंगे पत्र लख्यो हतो. संस्कृत भाषामां लिखित आ पत्र आ अङ्कमां प्रकाशित छे. आमां पं. गम्भीरविजयजीनी गम्भीरता अने विद्वत्तानां दर्शन थाय छे. जैनधर्ममां मांसाहार जेवा संवेदनपूर्ण प्रश्ननी चर्चा तेओ केवी स्वस्थता अने शालीनता साथे करे छे तेनी नोंध लेवा जेवी छे. श्रेयांसनाथ स्तवन खम्भातमां रचायुं छे. खम्भात परगणानी ए समयनी बोलीमां 'य' श्रुतिवाळा शब्दो प्रचारमा हता. आमां एवा शब्दो छे. धइ, लख्यमी, इग्यारमउ, दिख्या वगेरेमां 'य' श्रुति छे. . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520565
Book TitleAnusandhan 2014 08 SrNo 64
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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