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अनुसन्धान-५६
पश्यति सर्वात्मना धर्मास्तिकायादीन्, शब्दादीँस्तु योग्यदेशावस्थितान् पश्यत्यपि ।" (नन्दीसूत्रना “दव्वओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वदव्वाइं जाणइ न पासइ" अ अंशनी हारिभद्रीय टीका) नन्दीसूत्रनी टीकाओमां श्रुतज्ञानना निरूपण वखते ‘पासइ' शब्द सामे, श्रुतज्ञानमां दर्शन न होवाथी प्रश्न उठाववामां आवे छे, त्यारे से स्पष्ट छे के 'पासइ' दर्शन साथै सम्बन्धित छे. हवे आ दर्शन ‘सामान्यांशग्रहणात्मक' अभिप्रेत छे के 'पश्यत्तात्मक', तेनो खुलाओ उपरनी टीकाथी थइ जाय छे. मतिज्ञानीने आदेशथी (-सामान्यपणे) पण धर्मास्तिकायने जाणवा माटे, तेना सामान्य अंशनुं ग्रहण आवश्यक छे ज, तेने जोवुं आवश्यक नथी. माटे दर्शननो अर्थ 'जोवुं' ने बदले जो 'सामान्यांशग्रहण' अभिप्रेत होत तो ‘जाणइ पासइ' ज कहेवुं पडत. दर्शननो अर्थ 'जोवुं' लइओ तो ज 'जाणइ न पासइ' कही शकाय.
★ सिद्धसेन दिवाकरजीनी वेधक दृष्टि शब्दोने पेले पार जई मूल वस्तुस्वरूपने जोइ शके छे ते सर्वप्रसिद्ध छे. तेओओ आपेली दर्शननी ओळख
"नाणमपुट्ठे अविसए अ, अत्थम्मि दंसणं होइ ।
मोत्तूण लिंगओ जं, अणागयाईयविसएसु ॥" सन्मति० २.२५
उपर आपणे जोयुं तेम दर्शन साक्षात्कारात्मक होय छे; तेथी विचारणात्मक ज्ञानो– अनुमान, तर्क, प्रत्यभिज्ञान व दर्शन नथी. वळी, घ्राणादि ४ इन्द्रियोथी पदार्थ जाणी शकाय छे, जोई शकातो नथी; तेथी आ चार इन्द्रियोथी जन्य ज्ञान पण दर्शन नथी. उपरान्त, चक्षु अने मनमां पण अवग्रहादि तो विशेषज्ञानात्मक होय छे; तेथी ते पण दर्शन नथी. आम, चक्षु अने मनथी थतुं निराकार ईक्षण ज 'दर्शन' कहेवाय छे. दिवाकरजीओ आपेली दर्शननी व्याख्या पण आ बे ज स्थळे दर्शनत्वनुं प्रतिपादन करे छे.
अनुमान द्वारा लिंगनी सहायथी अतीत - अनागत वस्तुने जाणी शकाय छे. दिवाकरजीनी मान्यता प्रमाणे आवुं ज्ञान दर्शन नथी. तेओ 'मोत्तूण..." आ वाक्यथी उपरनी वात सूचवे छे. उपा. यशोविजयजीओ जणाव्या मुजब अत्रे उपलक्षणथी, स्मृति सिवायनां तमाम परोक्ष ज्ञानो दर्शन नथी गणातां तेम