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अनुसन्धान-५६
अभावनो नहीं पण सामान्यत्वनो सूचक छे. जेम लोकव्यवहारमां गर्भ न धरावनारी कन्याने गर्भविशिष्ट उदरना अभावे 'अनुदरा' कहेवामां आवे छे; तेम विशिष्ट आकारना अभावे दर्शन पण 'अनाकार' कहेवाय छे.
लोकप्रकाश-३.१०५१मां प्रस्तुत दर्शनने 'औपचारिक' गणाववामां आव्युं छे. ‘अवग्रहमां सामान्यविशेषोनुं ग्रहण होय छे' ओवी तार्किकोनी प्ररूपणा अने 'अवग्रह अ ज दर्शन छे' ओवी आगमिकोनी प्ररूपणाना सम्मीलनरूपमां पण प्रस्तुत मतने समजी शकाय.
★ श्रीवादिदेवसूरिजी, श्रीहेमचन्द्राचार्य व जैन तार्किको दर्शन अंगे ओक नवो मत रजू कर्यो छे. आ मत मुजब दर्शननुं सामान्यग्रहणात्मक स्वरूप बदलातुं नथी, पण प्रचलित ज्ञानदर्शननी व्यवस्थामां अवग्रह - ईहाने ज दर्शन गणवानी जे वात छे, तेने बदले आ मतमां दर्शनने अवग्रह - ईहा करता स्वतन्त्र स्थान प्राप्त थाय छे.
आ प्रक्रिया मुजब बोध माटे पांच ज्ञानेन्द्रियो अने मननो पोताना विषय साथै सम्बन्ध स्थपावो जरूरी छे. आ सम्बन्ध स्थपावानी साथे ज 'कंइक छे' ओवा आकारनुं दर्शन प्रगटे छे. आ दर्शन ज ज्ञानमात्रानी वृद्धिथी अन्तर्मूहूर्त जेटला कालमां अवग्रहरूपे परिणमे छे. अवग्रहमां 'रूप छे, रस छे' अवा सामान्यविशेषोनो बोध थाय छे. पछी विशेषविशेषोना बोध माटे ईहा - अपाय रचाय छे.
आ मतमां, अवग्रह विशेषग्राही बनवाथी तेना निराकारपणानी अने दर्शनने स्वतन्त्र स्थान मळवाथी दर्शननुं ज्ञानोत्पत्तिनी प्रक्रियामां स्थान न होवानी आपत्ति रहेती नथी. परन्तु शास्त्रोमां मतिज्ञानना जे २८ भेद गणाव्या होय छे तेमां ४ भेद व्यंजनावग्रहना होय छे; आ ४ भेद प्रस्तुत प्रक्रियामां मळता नथी, कारण के प्रस्तुत प्रक्रिया छओ प्रत्यक्षमां विषय - इन्द्रिय सम्बन्ध स्वीकारे छे; तेथी ঔ सम्बन्धने भेद तरीके गणीओ तो छ भेद गणवा पडे जे इष्ट नथी. २ १. “अक्षार्थयोगे दर्शनानन्तरमर्थग्रहणमवग्रहः " - प्रमाणमीमांसा - १.१.२६; “विषयविषयिसन्निपातानन्तरसमुद्भूतसत्तामात्रगोचरदर्शनाज्जातमाद्यग्रहणमवग्रहः”–प्रमाणनयतत्त्व-१.७
६-६ अवग्रह-ईहा-अपाय - धारणा = २४ + ४ बुद्धि ( - औत्पातिकी व . ) = २८. आ पण २८ भेद गणीने प्रस्तुत असंगतिनुं निराकरण कशेक जोयुं होवानुं स्मरणमां छे.
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