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ऑगस्ट २०११
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१. 'कंइक छे' एवा बोधात्मक अर्थावग्रहने ओक बाजु स्पष्टतः निराकार स्वरूप धरावतो अने अव्यक्त सामान्यनो ग्राहक समजाववामां आवे छे,१ तो बीजी तरफ साकार अने विशेषग्राही मतिज्ञानना भेद तरीके अनी गणतरी छे. आमां विरोध नथी ? ।
२. ज्ञाननी उत्पत्ति पूर्वे दर्शन- होवू अनिवार्य छे, पण उपर दर्शावेली मतिज्ञाननी उत्पत्ति प्रक्रियामां दर्शनने स्थान ज क्यां छे ?
३. उपरनी बन्ने समस्याओनुं समाधान ओ आपवामां आवे छे के व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह अने ईहा -त्रणेय दर्शनना- निराकार उपयोगना ज भेद छे. अने आ त्रण होय तो ज अपाय-धारणात्मक मतिज्ञान थइ शके छे.२ माटे दर्शननी ज्ञान पूर्वे अनिवार्यता पण आपोआप सचवाइ जाय छे.३
आ समाधाननी सामे ओ समस्या ऊभी थाय छे के जो आ त्रण भेदो 'दर्शन' छे, तो साक्षात् दर्शनना भेद तरीके ओमनी गणतरी केम कशे नथी देखाती ? बधे ज मतिज्ञानना अवग्रहादि २८ भेद -ओवी अकसरखी गणतरी शा माटे ? अवग्रहने, सामान्यना ग्रहणमात्रथी, 'दर्शन' गणी लेवान होय तो, सामान्यनी मानसिक विचारणा वखते पण फक्त सामान्य ज विषय बनतुं होय छे, तो ओ विचारणाने पण 'दर्शन' गणवी ?
४. ओक समाधान ओवू पण आपवामां आवे छे के ‘मतिज्ञानना २८ भेद'नो मतलब ओ नथी के मतिज्ञानरूप साकारोपयोगना २८ भेद होय छे, पण ओ छे के मतिज्ञानशक्तिना २८ भेद छे. ज्ञानशक्तिना उपयोग तो साकार-निराकार बन्ने होय छे. माटे मतिज्ञानशक्तिना भेदोमां साकार अने निराकार बन्ने उपयोगोना भेदोनी गणतरी छे. तेथी अवग्रहादि, मतिज्ञानशक्तिना दर्शनना भेदो छ अर्बु समजवानुं छे जेमां कोई विरोध नथी.
आ समाधान अटले गेरवाजबी ठरे छे के जो मतिज्ञानना भेदोनी १. "अर्थावग्रहेऽव्यक्तशब्दश्रवणस्यैव सूत्रे निर्देशाद्, अव्यक्तस्य च सामान्यरूपत्वाद्, अनाका
रोपयोगरूपस्य चाऽस्य तन्मात्रविषयत्वात्" - जैनतर्कभाषा २. नाणमवायधिइओ, दंसणमिटुं जहोग्गहेहाओ - वि.भाष्य - ५३६ ३. अमुक ठेकाणे अकला अर्थावग्रहने अथवा अर्थावग्रह-व्यंजनावग्रह ओ बेने पण 'दर्शन'
तरीके ओळखाववामां आव्या छे.