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अनुसन्धान ५१
स्थानिक संघ तेमज लोको द्वारा प्रमाणित छे. त्यां तेमनी पादुका पण छे, अने तेनी आराधना पण घणा लोको करे छे. 'गुंचवाडा'वाळा मित्रे अने तेमना स्वजनवर्गे, कशा ज कारण विना, प्रमाण तथा आधार विना, ते स्थानथी बे
खेतरवा दूर एक जमीन खरीद करी-करावी, अने ते जग्याने यशोविजयजी महाराजनी अन्तिम भूमि तरीके जाहेर करी. पुरातात्त्विक प्रमाणो तेमनी विरुद्धमां हतां. ३०० वर्षांनी ऐतिहासिक परम्पराथी पण आ जाहेरात विपरीत हती, गेरमार्गे दोरनारी हती. छतां गुंचवाडो ऊभो करवानी पद्धति, ज्यां सुधी स्थानिक श्रीसंघनो कठोर विरोध न थयो त्यां सुधी, छोडी नहोती.
तात्पर्य एटलुं ज के 'आपणी मान्यता ते ज संशोधन' एवं नथी होतुं; तो 'संशोधन हमेशां आपणी निर्धारित/स्वीकृत मान्यताने समर्थन ज आपे' तेवू पण नथी होतुं.
उपरोक्त चर्चाना समर्थनमां डॉ. हरिवल्लभ भायाणीनो एक सन्दर्भ टांकवा योग्य छ :
"प्रारम्भ एक प्रश्नथी करीए : 'संशोधन एटले शुं?' प्रश्न जेवो ज ढूंको उत्तर आपवो होय तो कही शकाय के संशोधन एटले सत्यनी शोध. आ सत्य एटले अध्ययन-विषयनी साथे संकळायेलां तथ्यो, तेमनो आन्तर सम्बन्ध तथा अर्थघटन, तथा ते उपरथी फलित थता व्यापक निर्णयो. पण मुश्केली अहींथी ज शरु थाय छे. सत्यने जे जोनार, जाणनार, परखनार छे ते एक चित्त छे, अने चित्तनी प्रकृति सत्यने यथार्थरूपे आपोआप प्राप्त करवानी नथी होती. अमुक चित्तावस्थामां ज तटस्थभावे वस्तुदर्शन ने विचारणा करी शकाती होय छे. चित्त क्षुब्ध के कलुषित होय त्यारे दर्शन, ग्रहण अने विचारणा आदि पूर्वग्रह के अभिनिवेशथी दूषित बने छे. व्यक्तिगत प्रकृति, रुचि, केळवणी अने युगभावना पण आमां महत्त्वनो भाग भजवे छे. अंगत आत्मलक्षी प्रभावथी बने तेटला अलिप्त रहेवाय तो ज तथ्य अने तदधीन व्यापक सत्य सुधी पहोंची शकाय."
(अनुसन्धान, ले. ह. भायाणी, प्र. सरस्वती पुस्तक भण्डार, अमदावाद, ई. १९७२)
वर्षों पूर्वे एक पुस्तक वांचेखें : 'साहित्य, तत्त्व अने तन्त्र'. लेखक गुलाबदास ब्रोकर. तेमां एक लेखनुं शीर्षक हतुं : 'सर्जकनुं कर्तव्य : आसनसे