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________________ मार्च २०१० इनका जन्म विभिन्न प्राकृतों से विकसित विभिन्न अपभ्रंशों से ही हुआ है । अब जहां तक प्राचीन अर्धमागधी के स्वरूप का प्रश्न है, उसके अधिकांश शब्दरूप अशोक एवं खारवेल के शिलालेखों तथा पालि त्रिपिटक के समकालिक हैं । डॉ. शोभना शाह ने आचारांगसूत्र की अर्धमागधी के शब्दरूपों की खारवेल के अभिलेख से तुलना की है । उन्होंने बताया है कि मध्यवर्ती 'त' का अस्तित्व आचारांग में ९९.५ प्रतिशत है और खारवेल के अभिलेख में १०० प्रतिशत है । मध्यवर्ती 'त' का 'य' (महाराष्ट्री प्राकृत का लक्षण) आचारांग में मात्र ०.५ प्रतिशत है । खारवेल के अभिलेख में उसका प्रायः अभाव है । मध्यवर्ती 'त' का 'द' जो कि शौरसेनी प्राकृत का प्रमुख लक्षण है - उसका आचारांग और खारवेल के अभिलेख में प्राय: अभाव है, जबकि कुन्दकुन्द के प्रवचनसार जैसे ग्रन्थ में वह ९५ प्रतिशत है । मध्यवर्ती 'ध' का 'ध' रूप आचारांग और खारवेल के अभिलेख में प्रायः शतप्रतिशत है। जबकि प्रवचनसार में मात्र ५० प्रतिशत है। ये और इस प्रकार के भाषिक परिवर्तनों से यह सिद्ध होता है कि अर्धमागधी के प्राचीन शब्दरूप प्राय: अशोक एवं खारवेल के अभिलेखों में मिल जाते हैं, जबकि शौरसेनी प्राकृत और महाराष्ट्री प्राकृत के शब्दरूपों का उनमें अभाव है । अतः यह ई. पू. की अभिलेखीय प्राकृत और अर्धमागधी में अधिक समरूपता है । अर्धमागधी का विकास मागधी और मगध के समीपवर्ती क्षेत्रीय बोलियों के शब्दरूप के मिश्रण से हुआ है । शौरसेनी और महाराष्ट्री प्राकृतों का विकास भी उन क्षेत्रों की क्षेत्रीय बोलियों से हुआ होगा, इसमें तो सन्देह नहीं है, किन्तु इन्हें साहित्यिक भाषा के रूप में मान्यता लगभग ईसा की ३री या चौथी शती में मिल पायी है । क्योंकि ई. पू. प्रथम शती से लेकर ईसा की २री शती तक के मथुरा से उपलब्ध अभिलेखों में शौरसेनी या महाराष्ट्री के लक्षणों का प्रायः अभाव है, जबकि उन पर संस्कृत का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है । यदि शौरसेनी साहित्यिक प्राकृत के रूप में उस काल में प्रतिष्ठित होती तो उसके मुख्य लक्षण मध्यवर्ती 'त' का 'द' तथा इसी प्रकार शौरसेनी और महाराष्ट्री दोनों का विशेष लक्षण 'न' का सर्वत्र 'ण' कहीं तो मिलना था । जबकि अशोक, खारवेल और मथुरा के अभिलेखों में 'न' ही मिलता है, 'ण' नहीं । इससे यह प्रमाणित होता है कि जैन शौरसेनी प्राकृत अभिलेखीय प्राकृत से परवर्ती मागधी (पालि) और Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only ८९ www.jainelibrary.org
SR No.520551
Book TitleAnusandhan 2010 03 SrNo 50 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size11 MB
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