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शीलचन्द्रसूरिजीना शिष्य मुनिश्री त्रैलोक्यमण्डनविजयजीओ कर्तुं छे.
आजे जैन साहित्यक्षेत्रे पुनः प्रकाशननो युग बेठो छे ओम कही शकाय . पुनः प्रकाशन आवकार्य छे ज, किन्तु पूर्वमुद्रित ग्रन्थोने मिनी- ओफसेट, झेरोक्ष वगेरे साधनो द्वारा 'बेठां' ऊतारी लई पुनः प्रकाशन करी देवाय छे. लेखनयुगमां लहियाओ 'मक्षिकास्थाने मक्षिका' करता, तेम आवां प्रकाशनोमां अगाउना प्रकाशननी क्षतिओ तो कायम ज रहे छे अने से ज ग्रन्थ के अ ज विषय पर कोई नवं संशोधनकार्य थयेल होय तेनो कशी उपयोग थतो नथी. अथीय वधारे वरवी वात तो ओ छे के आवी रीते 'नकल' करायेल ग्रन्थना पूर्वसम्पादकोनां के संशोधकोनां नाम हठावी प्रकाशको के प्रेरणादाताओ पोतानुं नाम सम्पादक तरीके छापतां अचकाता नथी. अ प्रकाशनमां सम्पादक तरीके तेमनुं कोइ योगदान होतुं नथी. प्रस्तुत प्रकाशन पुनः प्रकाशन होवा छतां तेमां सम्पादके आपेलुं योगदान आपणुं ध्यान खेंचे छे. सम्पादक मुनिवरे ग्रन्थ तथा तेनी बन्ने टीकाओनो सूक्ष्मताथी अभ्यास कर्यो छे अने तेना परिपाकरूपे श्रीउदयसूरिजीकृत टीकाना भावने स्पष्ट करतां टिप्पणो यत्रतत्र ऊमेर्यां छे. आ टिप्पणो सम्पादकनी सज्जतानो निर्देश तो करे ज छे, ते उपरांत श्रमणसंघमा तार्किक विषयना ओक उदीयमान विद्वान तरीके तेमने प्रस्थापित करे छे.
अनुसन्धान ५० (२)
आ ग्रन्थनुं विवरण तथा भाषान्तर आनाथी पूर्वे अन्यत्री प्रकाशित थया छे. तेनुं अवलोकन पण सम्पादके झीणवटथी कर्तुं छे अने तेमांना केटलांक चिन्तनीय स्थानो विषे पोतानुं अवलोकन ओक लेख रूपे आ पुस्तकमां मूकाय छे. ग्रन्थना विषयने आत्मसात् करवानो मुनिश्रीनो प्रयत्न आमां प्रतिबिम्बित थाय छे.
आवा ग्रन्थोनुं मुद्रण अशुद्धि मुक्त रहेवुं जोईओ; अन्यथा शब्दभेद अने तेना परिणामे अर्थभेद ऊभो थाय अने अन्ततोगत्वा मूळ ग्रन्थकारनो अभिप्रेत अर्थ अदृश्य थई कोई विलक्षण तात्पर्यनी आपत्ति थाय अवुं बने. 'जैन तर्कभाषा' ना आनाथी पूर्व मुद्रित संस्करणोमां रही गयेल आवी भ्रमपूर्ण अने भ्रमोत्पादक अशुद्धिओ पण सम्पादके सूक्ष्मेक्षिकाथी शोधी छे अने दूर करी छे. अकाद अपवाद सिवाय प्रस्तुत प्रकाशन अशुद्धिथी मुक्त रह्युं छे.
पं. श्रीसुखलालजीनी रचेली टीकामां आवता घणाखरा शास्त्रपाठो
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