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विहंगावलोकन
उपा. भुवनचन्द्र
'अनुसन्धान' ना ४९ मा अंकमा संस्कृत व्याकरणनो एक लघु ग्रन्थ प्रगट थयो छे. 'शब्दसञ्चय:' नामक आ रचनामां संस्कृतना स्वरान्त - व्यञ्जनान्त नामोनां विभक्तिरूपोने सर्वग्राही रूपे तथा साधनिका साथै संगृहीत करवामां आव्या छे. सिद्धहैम तथा कातन्त्र ए बे व्याकरणना आधारे रूपसिद्धि करवामां आवी छे. जैन वर्तुळोमां विविध विषयोनो अभ्यास केवी तत्परताथी थतो आव्यो छे ते आवी रचनाओ कही जाय छे. सम्पादके जे विशदता साथे कृतिनुं सम्पादन कर्युं छे ते सम्पादकना आ विषयना अधिकारनी द्योतक छे.
तीर्थमाला प्रकारनी एक रचना 'तीर्थावली द्वात्रिंशिका' आ अंकमां छे. कृति संक्षिप्त होवाथी तीर्थो विशे अधिक जाणकारी जो के नथी मळती, तेम छतां विभिन्न काळखण्डोमां तीर्थोनी मान्यता, संख्या के नाम-ठाम जाणवाना स्रोत रूपे आवी तीर्थावलीओ उपयोगी बने छे ज. कृति शुद्धप्राय: छे. श्लो. १७मां 'ततस्तत (:) श्री....' एवो सुधारो सूचववामां आव्यो छे ते अनावश्यक छे. 'ततस्तत श्री....' पाठ शुद्ध छे.
'श्री आचार्यजीना बार मसवाड़ा' काव्यगुणयुक्त रचना छे. आमां कविनो कल्पना - उन्मेष जोवा मळे छे. पाठमां थोडां संमार्जनीय स्थान छे :
पृ. १११, पं. ६ - ‘सहोदरां माता' छे ते ठेकाणे 'सोहोदनां' होवुं घटे. कडी ४मां मातानुं आ नाम आपेलुं छे ज. पृ. १११, पं. ११मां 'वरनी'ने स्थाने सम्भवत: 'चटनी' शब्द होवो जोइए. सालणां (अथाणां) साथे 'चटनी 'नो मेळ पण स्वाभाविक छे. हस्तप्रत चकासवी जोईए. दूहा ५ (पृ. ११२ ) नी प्रथम पंक्ति आ रीते वांचवी जोईए : 'कल्पवृक्ष मि पामीऊ' पृ. ११२, दूहा ६मां 'सीतल वरसुं' छे त्यां 'करसुं' होवुं घटे.
त्रण लघु रचनाओमांनी त्रणेय रचनाओ नोंधपात्र छे. 'नेमिजिनस्तुति 'मां शब्दालङ्कारो, 'सिलोकानन्द' मां शब्दचातुरी, 'गौतमरास' मां भक्तिरस आपणुं ध्यान खेंचे छे.
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