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मार्च २०१०
जैनियों के लिए उनके व्रतस्वरूप आचरण का कोई प्रावधान नहीं बना था । (३) व्रतविषयक साहित्य की द्वितीयावस्था :
आगमकाल में विविध प्रकार के तपों का निर्देश है । उत्तरकाल में तपों का विस्तार से वर्णन करते करते धीरे धीरे तप के साथ विविध प्रकार की विधियाँ जुड गयी । तपोविधि के साथ फल भी अल्पांश मात्रा में निर्दिष्ट होने लगे । यह द्वितीयावस्था ख्रिस्ताब्द छट्ठी शती से दसवीं सदी तक के ग्रन्थों में पायी जाती है ।
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जटासिंहनन्दिकृत 'वरांगचरित' यह संस्कृत ग्रन्थ, डॉ. ए. एन्. उपाध्ये के अनुसार सातवी शताब्दी का है । आगमोक्त तपों को उन्होंने 'सत्तप' कहा है । २९ उनको 'व्रत' संज्ञा नहीं दी है । व्रत शब्द के अनेक समास ग्रन्थ में दिखायी देते हैं लेकिन वे सब प्रायः साधुव्रत तथा श्रावकव्रत के सन्दर्भ में हैं । ३० फलनिष्पत्ति के कथन की प्रवृत्ति दिखायी देती है । ३१ जिनप्रतिमा, जिनपूजा, प्रतिष्ठा आदि का सुविस्तृत वर्णन पाया जाता है । ३२ किसी भी नये सुलभ व्रतों का निर्माण उन्होंने नहीं किया है ।
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हरिवंशपुराण (८वी शताब्दी ) " तथा आदिपुराण (९वी शताब्दी) ३४ में आगमोक्त तपों का संक्षिप्त वर्णन है । कुछ तपों को 'विधि' कहा है । स्वर्ग तथा मोक्ष इन दोनों फलों का जिक्र किया है। उपवास की प्रधानता है । उद्यापन नहीं है ।
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दसवी शताब्दी में तो तपोविधि के लिए व्रत शब्द का आम उपयोग होने लगा । ३५ यह तथ्य गुणभद्रकृत 'उत्तरपुराण' ग्रन्थ के निम्नलिखित श्लोक से उजागर होता है ।
व्रतात्प्रत्ययमायाति निर्व्रतः शङ्क्यते जनैः ।
व्रती सफलवृक्षो वा निर्व्रतो वन्ध्यवृक्षवत् ॥३६
इस प्रकार वरांगचरित से लेकर उत्तरपुराण तक के ग्रन्थों में व्रतसाहित्य की द्वितीयावस्था दिखायी देती है ।
( ४ ) व्रतविषयक साहित्य की तृतीयावस्था :
व्रतविषयक साहित्य की तृतीयावस्था लगभग ११वी शती से आरम्भ
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