________________
अनुसन्धान ५० (२)
एवं महाराष्ट्री के शब्दरूपों का प्रभाव आया तथा उच्चारण में शैलीगत कुछ परिवर्तन भी हुए । अर्धमागधी के साथ सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह रहा कि वह भगवान महावीर के काल से वलभी की अन्तिम वाचना के काल (वीरनिर्वाण ९८० वर्ष / ९९३ वर्ष) अर्थात् एक हजार वर्ष तक मौखिक रूप में ही प्रचलित रही । इसके कारण उसके स्वरूप में अनेक परिवर्तन आये
और अन्ततोगत्वा वह शौरसेनी से गुजरकर महाराष्ट्री प्राकृत की गोदी में बैठ गई ।
विभिन्न प्राकृतों के सहसम्बन्ध को लेकर विगत कुछ वर्षों से यह भ्रान्तधारणा फैलाई जा रही है कि अमुक प्राकृत का जन्म अमुक प्राकृत से हुआ । वस्तुतः प्रत्येक प्राकृत का जन्म अपनी-अपनी क्षेत्रीय बोलियों से हुआ हैं । समीपवर्ती क्षेत्रों की बोलियों में सदैव आंशिक समानता और आंशिक असमानता स्वाभाविक रूप से होती है। यही कारण था कि अचेल परम्परा के शौरसेनी ग्रन्थों में भी कुछ लक्षण अर्धमागधी के और कुछ लक्षण महाराष्ट्री प्राकृत के पाए जाते हैं, क्योंकि यह मध्यदेशीय भाषा रही है । उसका सम्बन्ध पूर्व और पश्चिम दोनों से है, अतः उस पर दोनों की भाषाओं का प्रभाव आया है । प्राकृतें आपस में बहनें हैं - उनमें ऐसा नहीं है कि एक माता है और दूसरी पुत्री है । जिस प्रकार विभिन्न बहनें उम्र में छोटी-बड़ी होती हैं, वैसे ही साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर उनमें कालक्रम हो सकता है। अतः हमें यह दुराग्रह छोड़ना होगा कि सभी प्राकृतें मागधी या शौरसेनी से उदभूत हैं। प्राकृतें मूलतः क्षेत्रीय बोलियाँ हैं और उन्हीं क्षेत्रीय बोलियों को संस्कारित कर जब उनमें ग्रन्थ लिखे गये तो वे भाषाएँ बन गई । अर्धमागधी के उद्भव और विकास की यही कहानी है ।
C/o. प्राच्य विद्यापीठ
शाजापुर (म.प्र.)
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org