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________________ मार्च २०१० ९३ सिद्धान्तकोश भाग २ पृ. ४३१ पर भगवान के दिव्यध्वनि की चर्चा करते हुए दर्शन-प्राभृत एवं चन्द्रप्रभचरित (१८ / १ ) के सन्दर्भ देकर लिखते हैं कि 'तीर्थंकर की दिव्यध्वनि आधी मगधदेश की भाषारूप और आधी सर्वभाषारूप होती है' । आचार्य प्रभाचन्द्र नन्दीश्वर भक्ति के अर्थ में लिखते हैं कि- 'उस दिव्यध्वनि का विस्तार मागध जाति के देव करते हैं, अतः अर्धमागधी देवकृत अतिशय है' । श्रीविद्यासागरजी के शिष्य श्रीप्रमाणसागरजी अपनी पुस्तक जैनधर्म-दर्शन (प्रथम संस्करण) पृ. ५० पर लिखते हैं कि - 'भगवान महावीर का उपदेश सर्वग्राह्य अर्धमागधी भाषा में हुआ' आदि । इस प्रकार जैन परम्परा समग्र रूप से यह स्वीकार करती है कि भगवान महावीर के उपदेशों की भाषा अर्धमागधी थी । क्योंकि उनका विचरण क्षेत्र प्रमुखतया मगध और उसका समीपवर्ती क्षेत्र था । यही कारण था कि उनकी उपदेश की भाषा आसपास के क्षेत्रीय शब्दरूपों ये युक्त मागधी अर्थात् अर्धमागधी थी । वक्ता उसी भाषा में बोलता है जो उसकी मातृभाषा हो या श्रोता जिस भाषा को जानते हों । अतः भगवान महावीर के उपदेशों की भाषा अर्धमागधी ही रही होगी । 1 इस प्रकार हम देखते हैं कि अर्धमागधी भाषा का उद्भव ई.पू. पांचवीं - छुट्टी शती में भगवान महावीर के उपदेशों की भाषा के रूप में हुआ, जो कालान्तर में अर्धमागधी आगम साहित्य की भाषा बन गई। जब हम अर्धमागधी भाषा के विकास की बात करते हैं तो उस भाषा के स्वरूप में क्रमिक परिवर्तन कैसे हुआ और उसमें निर्मित साहित्य कौन सा है, यह जानना आवश्यक है । मेरी दृष्टि में यह एक निर्विवाद तथ्य है कि व्याकरण के नियमों से पूर्णत: जकड़ी हुई संस्कृत भाषा को छोड़कर कोई भी भाषा दीर्घकाल तक एकरूप नहीं रह पाई । स्वयं संस्कृत भी दीर्घकाल तक एकरूप नहीं रह पाई । उसके भी आर्ष संस्कृत और परवर्ती साहित्यिक संस्कृत ऐसे दो रूप मिलते ही हैं । वे सभी भाषाएं जो लोक बोलियों से विकसित होती है । सौ-दो सौ वर्ष तक भी एकरूप नहीं रह पाती हैं । वर्तमान हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के साहित्यिक रूपों में कैसा परिवर्तन हुआ, यह हम सामान्य रूप से जानते ही हैं । अतः अर्धमागधी भी चिरकाल तक एकरूप नहीं रह पायी । जैसे-जैसे जैन धर्म का विस्तार उत्तर-पश्चिमी भारत में हुआ, उस पर शौरसेनी I Jain Education International 2010_03 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520551
Book TitleAnusandhan 2010 03 SrNo 50 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size11 MB
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